जैसे अपर्णा मनोज की कविताओं का अपना ही मुहावरा है, उसी तरह उनकी इस कहानी का स्वर. साधा हुआ शिल्प, गहरी संवेदना. उनकी इस ‘लगभग पहली कहानी’ को प्रकाशित करते हुए जानकी पुल को गर्व महसूस हो रहा है. आप भी पढ़िए.
आज फिर वह दर्पण छ : रास्ते पर खड़ी थी . चेहरे पर उलझन थी . कुछ पहचानने की कोशिश कर रही थी वह . हाथ बार-बार कंधे पर झूल रहे झोले में जाता . जैसे उसमें कुछ ढूंढ़ रही हो और वह मिल नहीं रहा हो . पास से कई मोटर -कारें गुज़र गईं . ड्यूटी पर खड़े ट्रैफिक कांस्टेबल ने उसकी तरफ घूरा पर स्त्री कहीं और देख रही थी . जब कई पल यूँ ही बीत गए और स्त्री का चेहरा धूप से लाल हो गया , तब किसी संवेदना के वशीभूत कांस्टेबल उसके नज़दीक आया और नरमाई से बोला , “आपको कहाँ जाना है ,मैडम .”
वह अचकचा गई . हाँ , उसे जाना तो है . अपने घर ही जाना है . पर रास्ता सूझ नहीं रहा . झोले में पता हमेशा रखती है . मोबाईल भी साथ ही रहता है , पर आज न पता साथ था और न मोबाईल . अब रास्ता कौन बताएगा ? जगह पहचानी हुई है . वह कई बार यहाँ से गुज़री है . लेकिन इस वक्त जैसे ब्लैक आउट हो गया है . दिमाग कोरे कागज़ की तरह साफ़ है . विगत की कोई स्मृति इस पर जैसे अंकित ही नहीं है . उसने झुरझुरी महसूस की . बदन भरी गर्मी में काँप गया . क्या कहे वह ?
कांस्टेबल की आवाज़ फिर हथौड़े की मार की तरह दिमाग पर टकराई . उसने सूनी आँखों से उसे देखा जैसे कुछ बूझ रही हो . तुरंत ही न जाने क्या घटा कि एक साथ कई नाम दिमाग में कौंधे .. दुकानों के नाम .. रास्तों के नाम .. और अंत में उसका खुद का नाम और साथ ही बिल्डिंग का नाम जहां वह रहती है .
उसने कांस्टेबल को शुक्रिया कहा और क्रॉस वर्ड वाली सड़क पकड़ ली . कांस्टेबल हक्का बक्का देखता रहा . मन ही मन बोला , ‘अजीब औरत है . लेकिन बड़ी पहचानी हुई लग रही थी . खैर जो भी हो .. पता नहीं यहाँ खड़ी क्या कर रही थी ? और शुक्रिया किस बात का दे गई ?’ इस बीच सारा टैफिक जाम हो गया . लोग गाड़ियों के हॉर्न बजा बजाकर नाक में दम कर रहे थे . दोपहर में सिग्नल लाइट्स नहीं रहतीं . इतने बड़े छ : रास्ते पर अमूमन तीन लोग तो ड्यूटी पर रहते ही हैं , किन्तु आज त्योहार का दिन था , सो अकेला रहमान ही सारा ट्रैफिक देख रहा था . खैर उसने तत्परता से अपना काम किया . ट्रैफिक फिर यंत्रवत भागता नज़र आया . शोर में वह उस स्त्री को भूल गया . स्त्री अपने घर आ गई . उसने ताला खोला और सबसे पहले स्टडी टेबल पर गई . अपनी डायरी खोली और नोट किया :
१३ नवम्बर २०११
प्रिय ..
आज मेरी मदद ट्रैफिक कांस्टेबल ने की . मुझे उसका नाम तो पूछना चाहिए था . पर क्या मुझे उसका चेहरा याद रहेगा ? देखो समय कितना बदल गया है . चीज़ें भी बदल गई हैं . मैं भी अब पहले जैसी कहाँ रही ? अब कोई कहानी नहीं लिख पाती . पहले शहर का हर पात्र ही कहानी बन जाता था . कैसी सनसनीखेज होती थीं कहानियां भी . अफवाह की तरह शहर भर में घूम आतीं . चलो छोड़ो … क्या करना है इन बातों का . शुक्र मनाओ कि घर लौट आई . “
उसने डायरी बंद की और झोले का सामान रसोई में करीने से रख दिया . हाथ-मुंह धोया , हलके कपड़े पहने और पंखा व ए.सी चलाकर आराम कुर्सी में धंस गई . कुर्सी पर झूला झूलते-झूलते कब नींद लग गई , पता नहीं चला . द बैल जार ::
डायरी के पन्ने पंखे की हवा में फड़फड़ा रहे थे . धूप का एक कतरा रोशनदान से आकर चिड़िया की तरह डायरी के पन्नों पर बैठ गया , जैसे जीवन के आकाश में हमेशा के लिए कुछ बचा रह गया हो . जैसे हर शून्य इसी तरह भरा जाने को तैयार बैठा है . अनगिनत पंखों से काटा हुआ सलेटी -नीला आसमान और उसकी हलकी नीली रोशनी को पकड़े हुए चिड़ियों की कतारें … ये कैनवास कभी अधूरा नहीं रहता . नाना रंग आते हैं . कोई इनमें रंग भरता है .. जैसे रंगों के अनुपात में ये कैनवास फैलता हो . क्या ये कभी पूरा भरा जाएगा ! क्या कोई टुकड़ा अंत में खाली बचेगा ! पन्नों पर बैठी धूप सरक कर मनस्वी के सिर पर मंडराने लगी . मनस्वी जाग गई . उसने धूप के कतरे की ओर देखा , फिर स्वगत बोली ,” हाँ , अभी तो ये कतरा बाकी है . गोल-गोल चक्कर लगाता . समय इसमें रेत के कणों की तरह घूम रहा है , मुझसे लिपट कर .कुछ मेरे भीतर तक चिपका है , जिद्दी बनकर ; कुछ बाहर को फ़ैल गया है .. इसके अन्दर की धूप जब तक बची है , ये दिखेगा .. फिर बाहर का अँधेरा इसमें घुसता जाएगा . कतरे की छायाएं उभरेंगी और खो जायेंगी … यही जीवन है . “
अब धूप की पूरी आकशगंगा रोशनदान से भीतर आने लगी .. मिट्टी में सनी . उसका फोकस साइड टेबल पर रखी नील की तस्वीर थी . न चाहते हुए भी मनस्वी ने तस्वीर की ओर देखा . उठकर अपने रुमाल से तस्वीर को पोंछा , फिर यथावत रख दिया . नील से वह रोज़ मिलती है . दोनों साथ ही मोर्निंग वॉक पर जाते हैं . एक घंटा साथ होते हैं . अधिक बातें नहीं होतीं. वह रोज़ उसके हाल पूछ लेता है . वही तमाम हिदायतों के साथ .. समय पर दवाई लेती रहा करो . खाना ठीक से खाओ . अकेले बाहर मत जाया करो . घर का सामान फ़ोन से आर्डर कर सकती हो , होम डिलीवरी भी तो होती है .. देखो मेरे पास समय की कमी है . अधिक आ नहीं सकता … वगैरह -वगैरह . उसे नील का सफाई देना नहीं अच्छा लगता पर ज्यादातर चुप लगा जाती है .. हाँ , सुबह की कॉफ़ी दोनों अकसर साथ पीते हैं .
मनस्वी पीछे हाथ बाँधे कमरे में टहलने लगी . उसने सिल्विया प्लाथ की पुस्तक “द बैल जार ” उठाई . पुस्तक का कवर पेज देखा .. मन ही मन दोहराया सिल्विया .. अ न्यूरोटिक राइटर … उसे उबकाई आने लगी . किताब छोड़कर वह अधूरे बने चित्र को देखने लगी .. क्या वह भी किसी दिन एक साथ पचास स्लीपिंग पिल्स खा लेगी .. सुसाइडल आइडिएशन .. नहीं . ऐसा कुछ नहीं है . वह अपना ध्यान रखेगी . खुद को बीमार नहीं होने देगी . वह अकेली नहीं है . पर उसके आगे -पीछे है ही कौन ? शादी .. बच्चे .. परिवार …ऐसा कुछ है नहीं . फिर रह जाता है एक वेक्युम्ड बैल जार .. जिसमें घटनाएँ अपनी मर्ज़ी से आती हैं और मनमानी करके चली जाती हैं . जिंदगी घटनाओं का मसौदा है और वक्त इस पर अपने हस्ताक्षर करता जाता है . आदमी के शरीर में कुछ ऐसा नहीं घट सकता क्या कि वह प्लांक स्केल पर एक बार खड़ा होकर समय को हरा सके . अपने बनाये ईश्वर की पीठ पर अपने दुखों की बोरी लाद दे और कहे उससे कि अब ये भी झेलो और ये भी .. मैटामौरफ़ोसिस ::
लाल रंग की डायरी के पहले पन्ने पर सुनहरी अक्षरों में लिखी एडगर एलन पो की वे अमर पंक्तियाँ उसने मनन करने की कोशिश की ,” आइ वॉस नेवर रियली इन्सेन एक्सेप्ट अपॉन ओकेज़ंस व्हेन माय हार्ट वॉस टच्ड.” और ऐसे मौके कब-कब आये उसकी जिन्दगी में ? कई बार .. औरों को लेकर उसने बहुत बार ऐसा महसूस किया . इस कदर महसूस किया कि वे उसकी कहानियों का हिस्सा बने . दर्द के इस कीड़े को उसने अपने भीतर रेंगने दिया . उसे डसने दिया , पर .., पर उसे लेकर कभी किसी ने ऐसा फील किया भी या नहीं .. वह आइडेनटिटी लौस्ट का केस नहीं थी .तो फिर क्यों पंक बनकर भटकती रही . गन्दी जींस , खादी का सादा टॉप , बिखरे पर्म किये लाल -भूरे बाल , हाथ में अकसर सिगरेट और कार्ल मार्क्स का पूरा फ़लसफ़ा.. आइ . आइ . एम् करके उसने क्या किया ? चेतन भगत की तरह लिखने का काम शुरू किया . शहर के लोकल समाचार पत्र ‘सन्देश ‘में वह पेन नेम से कॉलम लिखती थी . बड़े -बड़े गोसिप . अखबार खूब बिकता था . संपादक पर उसका खूब रौब था . सुन्दर , जवान और टेलेंटेड साथ में स्मार्ट वर्क .. बढ़िया कॉम्बिनेशन था . कमाल का था उसका लेखन . शब्द बोलते थे और अफ़वाह फैलाते थे . शब्दों की हवस उससे कुछ भी करवा सकती थी . नाम की भूख उसे नहीं थी . उसे कहानियों की भूख थी .. जो अपने प्यूपा में धीरे -धीरे बड़ी होतीं और तितली बनकर उड़ती फिरतीं . वह हर उस जीवन में झाँकने की कोशिश करती जो आम आदमी के लिए वर्जित होते या उपेक्षित . मसलन , सी .जी . रोड पर माय-माय शॉप के आगे कार-पार्किंग वाला लड़का धीरू भाई अपने दो बच्चों को फुटपाथ पर बैठाकर पढ़ाता है . उसकी बीबी मर गई है . अनाथ बच्चे घर पर अकेले तो छोड़े नहीं जा सकते . सो स्कूल के बाद वे यहीं आ जाते हैं . बड़े होशियार हैं बच्चे . कुछ भी सुन लीजिये उनसे . गुजराती के अलावा अंग्रेजी और हिंदी का ज्ञान भी रखते हैं . अब कौन होगा जिसके मन में इस पिता के लिए पीड़ा और बच्चों के लिए दया न पैदा होगी .
और फिर कहानी पलटी मारकर अंत में सन्देश देती है .. कान में बोलकर .. बीबी मरी नहीं थी .. कोई भगा ले गया . उसकी आदत थी भागने की . वह कौन उसका पहला मर्द था . जान को दो बच्चे छोड़ गई . स्साली कुलटा थी .इस हरामज़ादी के लिए जिंदगी भर बच्चों से झूठ बोलना पड़ेगा कि ससुरी अकाल मौत मरी .. क्रमश: …
और पाठक हैरान .. दांतों तले उँगलियाँ दबाएगा .. शाम पहली फुर्सत में संशय दूर करने माय-माय से लगे फुटपाथ पर जाएगा .. कुछ कमाई धीरू भाई की भी हो जायेगी . हीरो बनकर फोटू खिंचवायेगा .. बच्चे भी दोनों नाक में ऊँगली डाले पास ही दुबके होंगे .
अगले दिन अगले अंक में होगा .. मेम , साब ऐसा ज़ुल्म मत करिए . मेरे बच्चे अनाथ हो जायेंगे . पेपर में छ्प गया तो थू-थू होगी . मैडम गुजराती का पेपर तो सभी पढ़ते हैं ..आपको सच बताता हूँ .. माज़रा ये है कि मैंने उसे धंधे .. पुलिस को मत बुलाइए . आप मेरी माई-बाप हैं . आगे से कान पकड़े.. ऐसा कुछ नहीं होगा .. मैं उसे घर पर रखूँगा . मेरी जोरू है .. कोई कमी न होगी . कहानी के एन नीचे एक बहुत बड़ी रंगीन तस्वीर छपी होगी – जिसमें धीरू भाई सपत्नीक बच्चों के साथ खड़ा है . लेडी चेटरलेज़ लवर ::
अपने तेइसवें वसंत में वह पूरे निखार पर थी . सौन्दर्य और मस्तिष्क का अद्भुत सम्मिश्रण . घर से सम्पन्न थी. अभाव नहीं जानती थी. जिद्द करना आता था . अहमदाबाद,आइ.आइ . एम् में प्रवेश मिल चुका था . नील उसका क्लासमेट था . उसका एकदम उलट. बहुत शांत और सौम्य . साहित्य से उसका कोई लगाव नहीं था . वह यहाँ पढ़ाई पूरी करने आया था ताकि एक अच्छी नौकरी पा सके . उसकी माँ इडली का ठेला लगाती थीं. अभावों को उसने देखा था . नील श्रीनिवासन का जनेऊ हुआ तो मनस्वी ने उसका खूब मज़ाक बनाया . उसे बुरा लगा , पर वह चुप रहा . दोनों के बीच सहनशीलता का ये सूत्र उनकी दोस्ती को बचाए हुए था .
इधर घर से विवाह का दबाव पड़ने लगा था . कायस्थों की बेटी कायस्थों के घर ही ब्याहनी चाहिए . फिर कायस्थों में भी बारह उपजातियां हैं . वे लोग माथुर हैं . श्रेष्ठ माने जाते हैं . माँ जाति को लेकर इतनी संकीर्ण मना नहीं हैं , पर पिताजी माथुरों से बाहर सोच भी नहीं सकते .मनस्वी विवाह के लिए तैयार नहीं थी . उसने साफ़ मना कर दिया . खूब कोहराम मचा . पिताजी बरेली से अहमदाबाद आ गए . जैसे -तैसे मनस्वी ने समझाया कि पढ़ाई पूरी होते ही वह खुद बरेली आ जायेगी , फिर जैसा पिताजी कहेंगे , aparna manoj hindi fiction
वह अचकचा गई . हाँ , उसे जाना तो है . अपने घर ही जाना है . पर रास्ता सूझ नहीं रहा . झोले में पता हमेशा रखती है . मोबाईल भी साथ ही रहता है , पर आज न पता साथ था और न मोबाईल . अब रास्ता कौन बताएगा ? जगह पहचानी हुई है . वह कई बार यहाँ से गुज़री है . लेकिन इस वक्त जैसे ब्लैक आउट हो गया है . दिमाग कोरे कागज़ की तरह साफ़ है . विगत की कोई स्मृति इस पर जैसे अंकित ही नहीं है . उसने झुरझुरी महसूस की . बदन भरी गर्मी में काँप गया . क्या कहे वह ?
कांस्टेबल की आवाज़ फिर हथौड़े की मार की तरह दिमाग पर टकराई . उसने सूनी आँखों से उसे देखा जैसे कुछ बूझ रही हो . तुरंत ही न जाने क्या घटा कि एक साथ कई नाम दिमाग में कौंधे .. दुकानों के नाम .. रास्तों के नाम .. और अंत में उसका खुद का नाम और साथ ही बिल्डिंग का नाम जहां वह रहती है .
उसने कांस्टेबल को शुक्रिया कहा और क्रॉस वर्ड वाली सड़क पकड़ ली . कांस्टेबल हक्का बक्का देखता रहा . मन ही मन बोला , ‘अजीब औरत है . लेकिन बड़ी पहचानी हुई लग रही थी . खैर जो भी हो .. पता नहीं यहाँ खड़ी क्या कर रही थी ? और शुक्रिया किस बात का दे गई ?’ इस बीच सारा टैफिक जाम हो गया . लोग गाड़ियों के हॉर्न बजा बजाकर नाक में दम कर रहे थे . दोपहर में सिग्नल लाइट्स नहीं रहतीं . इतने बड़े छ : रास्ते पर अमूमन तीन लोग तो ड्यूटी पर रहते ही हैं , किन्तु आज त्योहार का दिन था , सो अकेला रहमान ही सारा ट्रैफिक देख रहा था . खैर उसने तत्परता से अपना काम किया . ट्रैफिक फिर यंत्रवत भागता नज़र आया . शोर में वह उस स्त्री को भूल गया . स्त्री अपने घर आ गई . उसने ताला खोला और सबसे पहले स्टडी टेबल पर गई . अपनी डायरी खोली और नोट किया :
१३ नवम्बर २०११
प्रिय ..
आज मेरी मदद ट्रैफिक कांस्टेबल ने की . मुझे उसका नाम तो पूछना चाहिए था . पर क्या मुझे उसका चेहरा याद रहेगा ? देखो समय कितना बदल गया है . चीज़ें भी बदल गई हैं . मैं भी अब पहले जैसी कहाँ रही ? अब कोई कहानी नहीं लिख पाती . पहले शहर का हर पात्र ही कहानी बन जाता था . कैसी सनसनीखेज होती थीं कहानियां भी . अफवाह की तरह शहर भर में घूम आतीं . चलो छोड़ो … क्या करना है इन बातों का . शुक्र मनाओ कि घर लौट आई . “
उसने डायरी बंद की और झोले का सामान रसोई में करीने से रख दिया . हाथ-मुंह धोया , हलके कपड़े पहने और पंखा व ए.सी चलाकर आराम कुर्सी में धंस गई . कुर्सी पर झूला झूलते-झूलते कब नींद लग गई , पता नहीं चला . द बैल जार ::
डायरी के पन्ने पंखे की हवा में फड़फड़ा रहे थे . धूप का एक कतरा रोशनदान से आकर चिड़िया की तरह डायरी के पन्नों पर बैठ गया , जैसे जीवन के आकाश में हमेशा के लिए कुछ बचा रह गया हो . जैसे हर शून्य इसी तरह भरा जाने को तैयार बैठा है . अनगिनत पंखों से काटा हुआ सलेटी -नीला आसमान और उसकी हलकी नीली रोशनी को पकड़े हुए चिड़ियों की कतारें … ये कैनवास कभी अधूरा नहीं रहता . नाना रंग आते हैं . कोई इनमें रंग भरता है .. जैसे रंगों के अनुपात में ये कैनवास फैलता हो . क्या ये कभी पूरा भरा जाएगा ! क्या कोई टुकड़ा अंत में खाली बचेगा ! पन्नों पर बैठी धूप सरक कर मनस्वी के सिर पर मंडराने लगी . मनस्वी जाग गई . उसने धूप के कतरे की ओर देखा , फिर स्वगत बोली ,” हाँ , अभी तो ये कतरा बाकी है . गोल-गोल चक्कर लगाता . समय इसमें रेत के कणों की तरह घूम रहा है , मुझसे लिपट कर .कुछ मेरे भीतर तक चिपका है , जिद्दी बनकर ; कुछ बाहर को फ़ैल गया है .. इसके अन्दर की धूप जब तक बची है , ये दिखेगा .. फिर बाहर का अँधेरा इसमें घुसता जाएगा . कतरे की छायाएं उभरेंगी और खो जायेंगी … यही जीवन है . “
अब धूप की पूरी आकशगंगा रोशनदान से भीतर आने लगी .. मिट्टी में सनी . उसका फोकस साइड टेबल पर रखी नील की तस्वीर थी . न चाहते हुए भी मनस्वी ने तस्वीर की ओर देखा . उठकर अपने रुमाल से तस्वीर को पोंछा , फिर यथावत रख दिया . नील से वह रोज़ मिलती है . दोनों साथ ही मोर्निंग वॉक पर जाते हैं . एक घंटा साथ होते हैं . अधिक बातें नहीं होतीं. वह रोज़ उसके हाल पूछ लेता है . वही तमाम हिदायतों के साथ .. समय पर दवाई लेती रहा करो . खाना ठीक से खाओ . अकेले बाहर मत जाया करो . घर का सामान फ़ोन से आर्डर कर सकती हो , होम डिलीवरी भी तो होती है .. देखो मेरे पास समय की कमी है . अधिक आ नहीं सकता … वगैरह -वगैरह . उसे नील का सफाई देना नहीं अच्छा लगता पर ज्यादातर चुप लगा जाती है .. हाँ , सुबह की कॉफ़ी दोनों अकसर साथ पीते हैं .
मनस्वी पीछे हाथ बाँधे कमरे में टहलने लगी . उसने सिल्विया प्लाथ की पुस्तक “द बैल जार ” उठाई . पुस्तक का कवर पेज देखा .. मन ही मन दोहराया सिल्विया .. अ न्यूरोटिक राइटर … उसे उबकाई आने लगी . किताब छोड़कर वह अधूरे बने चित्र को देखने लगी .. क्या वह भी किसी दिन एक साथ पचास स्लीपिंग पिल्स खा लेगी .. सुसाइडल आइडिएशन .. नहीं . ऐसा कुछ नहीं है . वह अपना ध्यान रखेगी . खुद को बीमार नहीं होने देगी . वह अकेली नहीं है . पर उसके आगे -पीछे है ही कौन ? शादी .. बच्चे .. परिवार …ऐसा कुछ है नहीं . फिर रह जाता है एक वेक्युम्ड बैल जार .. जिसमें घटनाएँ अपनी मर्ज़ी से आती हैं और मनमानी करके चली जाती हैं . जिंदगी घटनाओं का मसौदा है और वक्त इस पर अपने हस्ताक्षर करता जाता है . आदमी के शरीर में कुछ ऐसा नहीं घट सकता क्या कि वह प्लांक स्केल पर एक बार खड़ा होकर समय को हरा सके . अपने बनाये ईश्वर की पीठ पर अपने दुखों की बोरी लाद दे और कहे उससे कि अब ये भी झेलो और ये भी .. मैटामौरफ़ोसिस ::
लाल रंग की डायरी के पहले पन्ने पर सुनहरी अक्षरों में लिखी एडगर एलन पो की वे अमर पंक्तियाँ उसने मनन करने की कोशिश की ,” आइ वॉस नेवर रियली इन्सेन एक्सेप्ट अपॉन ओकेज़ंस व्हेन माय हार्ट वॉस टच्ड.” और ऐसे मौके कब-कब आये उसकी जिन्दगी में ? कई बार .. औरों को लेकर उसने बहुत बार ऐसा महसूस किया . इस कदर महसूस किया कि वे उसकी कहानियों का हिस्सा बने . दर्द के इस कीड़े को उसने अपने भीतर रेंगने दिया . उसे डसने दिया , पर .., पर उसे लेकर कभी किसी ने ऐसा फील किया भी या नहीं .. वह आइडेनटिटी लौस्ट का केस नहीं थी .तो फिर क्यों पंक बनकर भटकती रही . गन्दी जींस , खादी का सादा टॉप , बिखरे पर्म किये लाल -भूरे बाल , हाथ में अकसर सिगरेट और कार्ल मार्क्स का पूरा फ़लसफ़ा.. आइ . आइ . एम् करके उसने क्या किया ? चेतन भगत की तरह लिखने का काम शुरू किया . शहर के लोकल समाचार पत्र ‘सन्देश ‘में वह पेन नेम से कॉलम लिखती थी . बड़े -बड़े गोसिप . अखबार खूब बिकता था . संपादक पर उसका खूब रौब था . सुन्दर , जवान और टेलेंटेड साथ में स्मार्ट वर्क .. बढ़िया कॉम्बिनेशन था . कमाल का था उसका लेखन . शब्द बोलते थे और अफ़वाह फैलाते थे . शब्दों की हवस उससे कुछ भी करवा सकती थी . नाम की भूख उसे नहीं थी . उसे कहानियों की भूख थी .. जो अपने प्यूपा में धीरे -धीरे बड़ी होतीं और तितली बनकर उड़ती फिरतीं . वह हर उस जीवन में झाँकने की कोशिश करती जो आम आदमी के लिए वर्जित होते या उपेक्षित . मसलन , सी .जी . रोड पर माय-माय शॉप के आगे कार-पार्किंग वाला लड़का धीरू भाई अपने दो बच्चों को फुटपाथ पर बैठाकर पढ़ाता है . उसकी बीबी मर गई है . अनाथ बच्चे घर पर अकेले तो छोड़े नहीं जा सकते . सो स्कूल के बाद वे यहीं आ जाते हैं . बड़े होशियार हैं बच्चे . कुछ भी सुन लीजिये उनसे . गुजराती के अलावा अंग्रेजी और हिंदी का ज्ञान भी रखते हैं . अब कौन होगा जिसके मन में इस पिता के लिए पीड़ा और बच्चों के लिए दया न पैदा होगी .
और फिर कहानी पलटी मारकर अंत में सन्देश देती है .. कान में बोलकर .. बीबी मरी नहीं थी .. कोई भगा ले गया . उसकी आदत थी भागने की . वह कौन उसका पहला मर्द था . जान को दो बच्चे छोड़ गई . स्साली कुलटा थी .इस हरामज़ादी के लिए जिंदगी भर बच्चों से झूठ बोलना पड़ेगा कि ससुरी अकाल मौत मरी .. क्रमश: …
और पाठक हैरान .. दांतों तले उँगलियाँ दबाएगा .. शाम पहली फुर्सत में संशय दूर करने माय-माय से लगे फुटपाथ पर जाएगा .. कुछ कमाई धीरू भाई की भी हो जायेगी . हीरो बनकर फोटू खिंचवायेगा .. बच्चे भी दोनों नाक में ऊँगली डाले पास ही दुबके होंगे .
अगले दिन अगले अंक में होगा .. मेम , साब ऐसा ज़ुल्म मत करिए . मेरे बच्चे अनाथ हो जायेंगे . पेपर में छ्प गया तो थू-थू होगी . मैडम गुजराती का पेपर तो सभी पढ़ते हैं ..आपको सच बताता हूँ .. माज़रा ये है कि मैंने उसे धंधे .. पुलिस को मत बुलाइए . आप मेरी माई-बाप हैं . आगे से कान पकड़े.. ऐसा कुछ नहीं होगा .. मैं उसे घर पर रखूँगा . मेरी जोरू है .. कोई कमी न होगी . कहानी के एन नीचे एक बहुत बड़ी रंगीन तस्वीर छपी होगी – जिसमें धीरू भाई सपत्नीक बच्चों के साथ खड़ा है . लेडी चेटरलेज़ लवर ::
अपने तेइसवें वसंत में वह पूरे निखार पर थी . सौन्दर्य और मस्तिष्क का अद्भुत सम्मिश्रण . घर से सम्पन्न थी. अभाव नहीं जानती थी. जिद्द करना आता था . अहमदाबाद,आइ.आइ . एम् में प्रवेश मिल चुका था . नील उसका क्लासमेट था . उसका एकदम उलट. बहुत शांत और सौम्य . साहित्य से उसका कोई लगाव नहीं था . वह यहाँ पढ़ाई पूरी करने आया था ताकि एक अच्छी नौकरी पा सके . उसकी माँ इडली का ठेला लगाती थीं. अभावों को उसने देखा था . नील श्रीनिवासन का जनेऊ हुआ तो मनस्वी ने उसका खूब मज़ाक बनाया . उसे बुरा लगा , पर वह चुप रहा . दोनों के बीच सहनशीलता का ये सूत्र उनकी दोस्ती को बचाए हुए था .
इधर घर से विवाह का दबाव पड़ने लगा था . कायस्थों की बेटी कायस्थों के घर ही ब्याहनी चाहिए . फिर कायस्थों में भी बारह उपजातियां हैं . वे लोग माथुर हैं . श्रेष्ठ माने जाते हैं . माँ जाति को लेकर इतनी संकीर्ण मना नहीं हैं , पर पिताजी माथुरों से बाहर सोच भी नहीं सकते .मनस्वी विवाह के लिए तैयार नहीं थी . उसने साफ़ मना कर दिया . खूब कोहराम मचा . पिताजी बरेली से अहमदाबाद आ गए . जैसे -तैसे मनस्वी ने समझाया कि पढ़ाई पूरी होते ही वह खुद बरेली आ जायेगी , फिर जैसा पिताजी कहेंगे , aparna manoj hindi fiction
27 Comments
लगता है जानकीपुल जैसे अन्य हिन्दी ब्लॉग्स में नए रचनाकारों का एक गिरोह पैदा हो गया है जो गलदश्रू पूर्ण, वायवीय, डरपोक, लिजलिजी रचनाओं पर एक दूसरे को वाह वाह करने में पीछे नहीं रहता। कुछ विदेशी लेखकों के उपन्यासों का उद्धरण और शब्दों के वक्रोक्तिपूर्ण प्रयोग से कहानी को आधीनीक मान लेना सही दृष्टि नहीं लगती। रही बात मध्यवर्गीय परिवार की मनःस्थिति की तो जरा बताएँगे ऐसा मध्यवर्गीय परिवार कहाँ देखा है?कायरों की तरह स्लीपिंग पिल्स खाकर जीवन समाप्त करने वाली कहानियाँ वास्तव में समाज की नारी मनःस्थिति को लीड नहीं करती।
बहुत प्यार से प्यार भरे लफ्जों कोपिरोया है ,यही तो जीवन है प्यार किया और प्यार जिया दोंनों हों तो कशिश कहाँ ? बेख़ुदी ज़िन्दगी का अमृत है कहानी ने खुल कर बताया ये सच ।अपर्णा मनोज पर क़लम मेहरबान है क़लमा भी …………
बहुत प्यार से प्यार भरे लफ्जों कोपिरोया है ,यही तो जीवन है प्यार किया और प्यार जिया दोंनों हों तो कशिश कहाँ ? बेख़ुदी ज़िन्दगी का अमृत है कहानी ने खुल कर बताया ये सच ।अपर्णा मनोज पर क़लम मेहरबान है क़लमा भी …………
naye roop se parichay
बहुत ही अद्भुत रचना है – आधुनिक युग में हिंदी और अंग्रेजी मिश्रण के साथ जो माध्यम वर्गीय परिवार में मन का चित्रण किया गया है बहुत ही सटीक और सराहनीय है | कई दिनों के बाद इतनी अच्छी कहानी पढ़ने को मिली – धन्यवाद
enchanting…
स्त्री मन को इतनी सुंदरता से शब्दों में पिरोना सहज नहीं …….कहानी पढ़ के कुछ देर तो हतप्रभ बैठी ही रह गयी ….बेहद प्रभावशाली ,,हृदयस्पर्शी……
मै स्वीकार करता हूं कि किसी अन्य की लिखी कहानी की आठ-दस पंक्तियों से अधिक नहीं पढ़ पाता, पिछले कई सालों से आयी पत्रिकाओं से रैपर भी नहीं हटाया. अब तक पढ़ने के लए खुद ही कहानियां लिखते-लिखते थकने जैसा हों चला है. किन्तु इस कहानी को पूरा पढ़ा और महसूस किया कि कोई अन्य लेखक (लेखिका) इस प्लाट के साथ बहुत छेड़-छाड कर जाता. सयम में रह कर इस कशीदाकारी के लिए बधाई, शुभकामनाएं.
excellent…….
i'm speechless….
anu
.अद्भुत कहानी…उद्धृत पंक्तियाँ तो बस कविता ही हैं..अज्ञेय याद आ रहे हैं..नारी जो कहती है वह उसका अभिप्राय नहीं होता,और जो उसका अभिप्राय होता है वह नहीं कहती..पर जब भी वह कुछ कहती है उसका कुछ ना कुछ अभिप्राय होता है..
धूप का एक कतरा रोशनदान से आकर चिड़िया की तरह डायरी के पन्नों पर बैठ गया , जैसे जीवन के आकाश में हमेशा के लिए कुछ बचा रह गया हो . जैसे हर शून्य इसी तरह भरा जाने को तैयार बैठा है . अनगिनत पंखों से काटा हुआ सलेटी -नीला आसमान और उसकी हलकी नीली रोशनी को पकड़े हुए चिड़ियों की कतारें … ये कैनवास कभी अधूरा नहीं रहता . नाना रंग आते हैं . कोई इनमें रंग भरता है .. जैसे रंगों के अनुपात में ये कैनवास फैलता हो . क्या ये कभी पूरा भरा जाएगा ! क्या कोई टुकड़ा अंत में खाली बचेगा ! पन्नों पर बैठी धूप सरक कर मनस्वी के सिर पर मंडराने लगी . मनस्वी जाग गई . उसने धूप के कतरे की ओर देखा , फिर स्वगत बोली ," हाँ , अभी तो ये कतरा बाकी है . गोल-गोल चक्कर लगाता . समय इसमें रेत के कणों की तरह घूम रहा है , मुझसे लिपट कर .कुछ मेरे भीतर तक चिपका है , जिद्दी बनकर ; कुछ बाहर को फ़ैल गया है .. इसके अन्दर की धूप जब तक बची है , ये दिखेगा .. फिर बाहर का अँधेरा इसमें घुसता जाएगा . कतरे की छायाएं उभरेंगी और खो जायेंगी … यही जीवन है . "
My God!!!! I couldn't stop without finishing in one go 🙂 very strong and mesmerizing.
कवियत्री Aparna Manoj की कविता और कहानी की भाषा जुदा-जुदा है किंतु उनकी इस कहानी में कविता है. इस 'द अनटाईटल्ड स्टोरी' के कई titles मन में उभरते हैं. इस कहानी में "धूप का एक कतरा " है जो रोशनदान से चिड़िया की तरह आता हुआ दिखाई देता है, यह कहानी जीवन के आकाश में हमेशा के लिए कुछ बचाती सी है, यह कहानी शुरू से अंत तक एक कैनवास बनाती है जिसमें नाना रंग भरते रहते हैं…नाना रंग…'द बैल जार' के रंग, 'मैतामोरफोसिस' के रंग, 'लेडी चेतर्लेज़ लवर' के रंग…और भी कई रंग…अपर्णा मनोज व Prabhat Ranjan को बहुत बहुत बधाई!
कहानी की गंध में सोच रहा हूँ… उससे बेहतर जीवन साथी और कौन होता ….
Only a woman can live this…only a woman can write this!
बधाई अपर्णा, बहुत अच्छी कहानी है. बहुत मौलिक प्रयोग. अल्ज़ाईमर पर यह कहानी मील का पत्थर हो सकती है अगर इसे विस्तार देना चाहो तो.
"शब्द बोलते थे और अफ़वाह फैलाते थे . शब्दों की हवस उससे कुछ भी करवा सकती थी . नाम की भूख उसे नहीं थी . उसे कहानियों की भूख थी .. जो अपने प्यूपा में धीरे -धीरे बड़ी होतीं और तितली बनकर उड़ती फिरतीं . वह हर उस जीवन में झाँकने की कोशिश करती जो आम आदमी के लिए वर्जित होते या उपेक्षित . मसलन , सी .जी . रोड पर माय-माय शॉप के आगे कार-पार्किंग वाला लड़का धीरू भाई अपने दो बच्चों को फुटपाथ पर बैठाकर पढ़ाता है . उसकी बीबी मर गई है . अनाथ बच्चे घर पर अकेले तो छोड़े नहीं जा सकते . सो स्कूल के बाद वे यहीं आ जाते हैं . बड़े होशियार हैं बच्चे . कुछ भी सुन लीजिये उनसे . गुजराती के अलावा अंग्रेजी और हिंदी का ज्ञान भी रखते हैं . अब कौन होगा जिसके मन में इस पिता के लिए पीड़ा और बच्चों के लिए दया न पैदा होगी ."…सखी को बधाई दिल से !!!
एक बढ़िया कहानी पढवाने के लिये प्रभात जी का शुक्रिया और अपर्णा जी को बधाई
अपर्णा जी की इस कहानी में वैचारिक विस्तार उनकी कविताओं से कतई कम नहीं है | वह अंतर्मन की पड़ताल बखूबी करती हैं | यह कहानी पढ़ते हुए उनकी कुछेक कविताएँ याद आती गईं और यह तय कर पाना मुश्किल सा लगा कि अंदरूनी जटिलताओं को उन्होंने कविताओं में बेहतर पकड़ा है या कहानी में | इस कहानी में उन्होंने जो वातावरण निर्मित किया है उससे भाषा के रचनात्मक इस्तेमाल की उनकी सामर्थ्य का सुबूत मिलता है |
धाराप्रवाह पढ़ गयी कहानी…
पढ़ना शुरू करे और पढ़ने वाला अंतिम पंक्ति तक बिना रुके पढ़ जाए, यही तो कहानी की सार्थकता है!
The mention of plancks scale at one point in the story mesmerised me; a constant of quantum mechanics so beautifully related…!
'द अनटाईटल्ड स्टोरी'अद्भुत है यह कहानी स्त्री मनोविज्ञान और मध्यवर्गीय समाज के भीतर का सच प्रतिबिंबित हो रहा है ! एक पारदर्शी अंतर्कथा , गहरी संवेदना जिसकी अनुभूति पाठक बड़ी सिद्हत से कर सकता है ! अपर्णा दी मै आपकी कहानी पढ़ पूरे दिन रोती रही पुनः पढ़ा तब जाकर कुछ लिख रही हु वह उस स्तर पर नहीं जहा आपकी कहानी ले जाती है ! कोई और कहानी हो तो पढना चाहूंगी ! दीदी इतनी अच्छी कहानी के लिए बधाई !!
अन्तरग और पारदर्शी मानवीय संबंधों की अनूठी कहानी… कितनी खूबसूरत बुनावट और वैसी ही कथा-भाषा… बस, दुआ इतनी-सी कि किसी मणि को ऐसी जीवन-स्थितियों और अनुभवों के बीच से न गुजरना पड़े…। बतौर कहानी, इस शानदार उपलब्धि के लिए हार्दिक बधाई।
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मध्यवर्गीय जीवन की अजीब दास्ताँ कहानिओं का प्रिय क्षेत्र है. स्त्री और उसके चेतन अवचेतन ने तो कहानिओं को अनंत विस्तार दे रखा है. जो कभी रचना थे आज वे खुद रचनाकार हैं. प्रामाणिक अनुभूति और अपने को प्रस्तुत करने के अपने संदर्भ ने साहित्य का मुहावरा ही बदल दिया है. शिल्प और कथ्य पर परिश्रम किया गया है. कहानीपन है. रवानगी है. नवाचार का प्रयास भी दिखता है. इसे ज़ारी रखने की आवश्यकता है. बधाई के पात्र आप दोनों हैं.
अपर्णा की कविताएँ पढ़ी थी. उनके अनुवाद कार्य से भी परिचित हूँ. पर अब यह कहानी. विस्मित हूँ. कहानी के शिल्प पर बहुत काम किया है अपर्णा ने . बिलकुल आज की कहानिओं का ढांचा है. पूरी कहानी एक मोनोलाग है. एक स्त्री के जीवन के अँधेरे-उजाले की एक यातनादायी यात्रा. बहुत ही रोचक और रवानगी से भरा. प्रभात को इस कहानी के प्रकाशन के लिए बधाई…. अपर्णा को अब किसी उपन्यास के बारे में सोचना चाहिए.
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