सुपरिचित कथाशिल्पी कविता का दूसरा उपन्यास ‘ये दिये रात की जरूरत थे’बहुरूपिया कलाकारों के जीवन–संघर्ष और उनके सांस्कृतिक–ऐतिहासिक महत्व को केंद्र में रख कर लिखा गया है। यह उपन्यास जहां एक तरफ लगभग लुप्त हो चुकी इस कला–परंपरा को इसकी सामाजिक–आर्थिक परिणतियों के साथ एक प्रभावशाली कथारूप में सहेजने का जतन करता है, तो वहीं दूसरी तरफ स्वतन्त्रता संग्राम में इसके अवदान का भी मूल्यांकन करता है। लोक–जीवन और कला के प्रति गहन आत्मीय लगाव और निष्कलुष आस्था के साथ लिखी गई यह कथाकृति समय, समाज और कला के अंतर्संबंधों को एक आत्मीय तटस्थता के साथ विवेचित–विश्लेषित करती है। राजनैतिक सूझबूझ और संवेदनात्मक तरलता के लगभग विपरीतधर्मी गुण–धर्म का एक ऐसा कलात्मक संतुलन इस उपन्यास में देखने को मिलता है कि कब एक प्रेम कहानी राजनैतिक विमर्श में बदल जाती है और कब कोई राजनैतिक विमर्श प्रेम और करुणा के मीठे सोते का रूप ले लेता है, पता ही नहीं चलता।
जातियाँ जरायमपेशा होती हैं या इंसान?’जैसे सवाल के बहाने यह उपन्यास जातिगत क़ानूनों की पुनर्व्याख्या करते हुये उनके औचित्य को तो चुनौती देता ही है, कला बनाम आजीविका के प्रश्न को भी समकालीन संदर्भों में नए सिरे से व्याख्यायित करता है।
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तुम तो ठहरे परदेशी….
बस्ती से लौट रही हूं मैं, पर उस बस्ती को अपने साथ-साथ लिये. मेरे साथ उस बस्ती के बच्चे हैं – दिन भर धूप-धूल में लिथड़े; भागते-दौड़ते. उद्दंड-सी शरारतें करते, फिर जो कुछ भी मिले उसे खुशी-खुशी खाकर सो जाते.
मैंने एक दिन आश्चर्य से भरकर पूछा था -“ये बच्चे स्कूल क्यों नहीं जाते? इन्हें पढ़ने क्यों नहीं भेजते आपलोग?”
गिरधर अपना मुंह खोलते ही कि वहां खड़े एक मुंहफट-से युवक ने कहा था – “मैडम जी! इन सब चोंचलों के लिये न हमारे पास पैसे हैं, न इच्छा…. मुश्किल से तो हम डेढ़ जून की सूखी रोटियां जुगाड़ पाते हैं, फिर स्कूल की फीस, दूसरे खर्च… और हां, भेजा था न कुछ बड़े-बड़े सपने देखनेवाले मां-बाप ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में. फायदा क्या मिला इसका! वहां के टीचर इन्हें क्लास के बाहर बिठाते थे. और अगर किसी बच्चे का कुछ भी गुम हो जाये तो सजा हमारे बच्चों को ही दी जाती. चोर होने का सरकारी मुहर जो लगा हुआ है हमारे माथे पर. दिन भर तपती धूप में खड़ा कर देने या फिर मार-मार कर अधमरा कर देने से ही शिक्षित हुआ जाता है तो हमारे बच्चे ऐसे ही ठीक हैं.”
मैं चुप हो गई थी. उस वक्त तो बिल्कुल चुप. पर मन जैसे कसैला हुआ जा रहा था॰. मैं सोचना चाह रही थी कि क्यों? उस लड़के ने जो भी कहा वह गलत तो नहीं था. फिर मैंने खुद को समझाने की कोशिश की. मेरा मन उस लड़के के उपेक्षा भरे व्यवहार से नहीं तिलमिलाया है, तिलमिलाहट की वजह कोई दूसरी है. बीसवीं सदी आने-आने को है और इस बस्ती के नौनिहाल स्कूल तक नहीं जा पाते… क्या होगा इस देश के भविष्य का…
उस लड़के नदीम का व्यंग्य भरा चेहरा फिर मेरी आंखों के आगे तिर जाता… पढ़-लिख कर ही इस देश के नौजवान कौन सा तीर मार ले रहे हैं, बेरोजगारी, नशा, व्यभिचार… सब तो …
मैंने अगले दिन गली में घूमते बच्चों को इकट्ठा किया था. उन्हें बटोरकर गिरधर की खोली में ले आई थी. अपनी डायरी के पन्ने अलग किये थे. पर्स में से मार्क करने के लिये रखी हुई तीन पेंसिलों के पन्द्रह टुकड़े किये थे और फिर उनकी नोक बनाई थी. मैंने बच्चों को पहला शब्द सिखाया था – ‘शिव’. क्यों, मुझे खुद नहीं पता…शायद इसलिये कि भीतर शायद कहीं यह भावना रही हो कि शुरुआत ऐसे ही करते हैं. हैरानी यह थी कि अधिकतर बच्चे शिव को भगवान के रूप में पहचानते थे. एक ने तो यह भी कहा – “हमारे भगवान! हम नटों के देवता – नटनागर!”
मैंने पूछा था उससे – “यह तुम्हें किसने सिखाया?”
बच्चा बोला था – “हरिहर काका ने. वो हमे अक्सर शाम में बैठाकर रूप धरना, नाच करना और तरह-तरह की आवाज़ें निकालना सिखाते हैं. वे कहते हैं – ‘यही है हमारी रोजी-रोटी, यही है हमारा धन्धा.’
मैंने दूसरा शब्द इसी रोजी-रोटी से तोडकर निकाला था – ‘रोटी’… मैंने कहा था – “रोटी से एक वाक्य बनाओ.”
अधिकतर बच्चे कुरेदने पर भी कुछ नहीं बोले थे. सबकी नज़रें नीची थीं जमीन की तरफ. बहुत-बहुत पूछने पर एक बच्ची सरस्वती ने हिम्मत करके कहा था – “रोटी अच्छी होती है, पर खयाली रोटी नहीं. रोटी अच्छी लगती है, जब उसके साथ दाल चाहे तरकारी बने… मेरी मां रोज काली रोटी बनाती है. मुझे उजली-उजली गोल-चिकनी रोटियां पसंद हैं – चंदा मामा जैसी.”
गिरधर दरवाज़े पर आ खड़े हुये थे. साथ-साथ वही नौजवान. गिरधर की आंखों में एक चमक थी और नदीम की आंखों में वहीं व्यंग्य. और मैं… मैने किसी की परवाह करनी छोड़ दी थी. जाने क्यों वह मुस्कुराए जा रहा था. मुझे उसकी आंखों का व्यंग्य बुरा लगा था – धंसता-सा, गड़ता-सा कहीं मेरे भीतर. अंदर तक काटता हुआ. पर कहीं अच्छा भी लगा था. मैं गिरधर का कहा याद करती – ‘बुरा नहीं है वह. घर-घर नौकरी करने के बाद भी बचपन में उसने कुछ पढ़ना-लिखना सीखा. पहला साक्षर है वह इस बस्ती का. तस्वीरें भी अच्छी बना लेता है. बहुत कुछ कर सकता था वह. पर माथे पर लगा यह ठप्पा करने कहां देता है, हम मे से किसी को कुछ. हार-झखकर फिर वही आवारागर्दी, चिलम-तंबाकू. मन हुआ तो भाई की पान की दुकान पर बैठा दो घड़ी, नहीं तो डोलता फिरा इत-उत. पर सबके बावज़ूद बस्ती में किसी पर कोई मुसीबत आई, सबसे पहले दौड़कर आता है वह. सबकी सहायता के लिए खड़ा रहता है एक पांव…’
मैं बच्चों को सिखाने के लिये तीसरा शब्द सोचती हूं – ‘काम’. मैं बोलती हूं जोर से – “क आकार का जोड़ म – काम. मतलब….”
पर मेरी आवाज़ दबी की दबी रह जाती है, उस तेज गूंजते शोर में. मोड़ के पान के दुकान पर `अल्ताफ रज़ा‘ चीख-चीख कर गा रहे थे – ’तुम तो ठहरे परदेसी… साथ क्या निभाओगे
तुम तो ठहरे परदेसी,साथ क्या निभाओगे… सुबह पहली गाड़ी से घर को लौट जाओगे…’
मैं खीजकर नज़रें उठाती हूं तो पान की दुकान पर खड़ा नदीम फिर दिख जाता है – अपने उसी स्थाई व्यंग्यभाव के साथ मुस्कुराता हुआ.
मेरे भीतर बेतरह खीज मच उठती है.. मैं उसी चिढ़ में बच्चों से कहती हूं – “जाओ बच्चों अब छुट्टी… बच्चे दुनिया के अन्य बच्चों की तरह हल्ला-गुल्ला करते, शोर मचाते एक दूसरे पर गिरते-पड़ते भाग खड़े होते हैं. मैं उन कागज़ों और पेन्सिलों को उठाकर अपने बैग में रखते हुये मुस्कुरा देती हूं.
बची-खुची खीज भी अब गायब हो चुकी है मन से… इन दृश्यों को याद करते हुये. ठीक ही तो सुना रहा था नदीम, क्या तीर मार लिया मैंने उन बच्चों को एकाध अक्षर सिखाकर. लौट ही तो आई हूं अपने घर॰ और फिर मन में जैसे उदासी की तहें बैठी जा रही हैं. पहले गिरधर, फिर नदीम, फिर वे बच्चे… कितनी अनाम ज़िंदगियां.. कितनी निष्काम प्रार्थनायें… क्या कर सकती हूं मैं इन सबके लिये. मैं फिर सोचती हूं. यह सिर्फ एक प्रश्नचिह्न है या फिर मेरा चिंतनभाव…
प्रफुल्ल चाकी वेणु अहीर और अकल्प चाचा यानी सब मिलाकर मेरे हिस्से का सच
डायरीवाला यह शख्स न ज आने क्यों अपना-सा लगता मुझे. वह क्यों इतना करीबी-सा लगता मैं खुद भी नहीं समझ पाती. बस एक लगाव… सच कहूं तो एक ऐसा लगाव जो कहानी पढ़ते वक्त आजतक कभी किसी भी पात्र के साथ नहीं जगा.
जब भी इस डायरी को पढ़ना शुरु किया है, डूब ही तो जाती हूं इसमें. यहां तक कि जब घर पर थी, मां बार-बार टोकतीं- ऐसा क्या है इस डायरी में कि इसी को लेकर बैठी रहती है दिन-रात… मैं भी जानना चाहती थी कि ऐसा क्या है इस डायरी में… जिसके मोह में गिरधर डूबे रहे लम्बे अर्से तक, और अब मैं…
१९०४ में बी डी सावरकर ने अभिनव भारत नामक क्रांतिकारियों की एक गुप्त संस्था का गठन किया और १९०५ के बाद अनेक अखबार निकाले गये जो खुले तौर पर क्रांतिकारियों के आतंकवाद की वकालत करते थे. मैंने अकल्प चाचा की पिताजी के नाम लिखी चिट्ठियां पढ़ी थी जिससे उनका इनके साथ होना ज्ञात होता था और जहां तक मैं इन चिट्ठियों के मार्फत समझ सका था, पिताजी भी उनकी गुप्त रूप से मदद करते रहते थे…
मैं पिताजी पर उन दिनों फख्र करने लगा था. मैं चोरी-छिपे ढूंढ़-ढांढ़कर अकल्प चाचा से जुड़ी सारी सामग्रियां‘ निकालता, उन्हें पढ़ने-समझने की कोशिश करता… यह कलकत्ता आने के कई वर्ष पूर्व की बात है…
उन्हीं चिट्ठियों से मुझे मालूम हुआ था कि १९०७ में बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर की हत्या का जो असफल प्रयास हुआ था उसमें अकल्प चाचा और उनके साथी सम्मिलित थे. चाचा खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी जैसे क्रांतिकारियों के साथी थे और हर योजना में उनके सहधर्मी भी.. उनकी चिट्ठी का वह हिस्सा मुझे विगलित कर गया था-
“भैयाजी…
हम लाख कोशिश करके भी कुछ कर नहीं पा रहे हैं, हमारे सारे के सारे प्रयास असफल… इन उदारवादियों ने तो जैसे क्राउन के प्रति वफादारी को ही अपना मूल कर्तव्य मान लिया है. पूरे बीस साल, गुलामी के बीस सालों को यूं ही बेमानी बिता देना कहां कि समझदारी हो सकती है? जबल्कि जनमानस की भलाई के लिये ब्रिटिश सरकार का उदासीन रवैया जगजाहिर है. महाराष्ट्र के अकाल और फिर प्लेग के प्रति उनका रूखापन क्या सहनीय था? चापेकर बन्धुओं ने जो कुछ किया वह किस तरह से गलत कहा जा सकता है? जब जनता मर रही हो, जब लोग अकाल और बीमारी से मर रहे हों, तो फिर इन सबकुछ को इतने सहज रूप से लेना या फिर ये कहना कि ये तो भारत के कई हिस्सों की आम परेशानियां हैं, क्या गलत और ज्याददती नहीं?
चापेकर बन्धुओं ने जो कुछ किया, मैं उसका हिमायती नहीं हूं. प्लेग कमीशन के अध्यक्ष को मार देना इन त्रासदियों से छुटकारा पाने का रास्ता नहीं हो सकता. पर जब आदमी विकल्पहीन हो जाये, उसके सोचने-समझने के लिये कुछ भी न बचा हो तो वह क्या करे? भूख, दुर्दशा और दुर्दिन किसके सोचने-समझने की शक्ति को नहीं छीजते. विवेक तब की बात होती है जब पेट भरा हो और मन तृप्त. खाली पेट तो…
मुझे उदारवादियों की सोच से कोई दिक्कत नहीं, परन्तु उनके ढुलमुलपने से है, वे तो डोमिनियन स्टेट, स्वशासन और स्वाधीनता के ऊहापोह में ही अबतक डूबे हुये हैं, उग्रवाद के पतन का भी एक कारण शायद यही रहा. यह क्रांति शायद इसीलिये नेतृत्वहीन हो गई. विगत वर्ष बी. डी. पाल को सजा सुनायी गई. छ: माह के कारावास की सजा भुगतने के बाद वे अब तीन वर्ष के अज्ञातवास में हैं. इसलिये कोई नहीं जानता कि अब वे कहां हैं. लाला लाजपत राय को चार वर्ष की सजा हो चुकी है. तिलक मांडले जेल में और अरबिंद घोष का राजनीति से विमुख होकर धर्म की ओर मुड़ना. इसे मैं पलायन के सिवा और कुछ नहीं कहूंगा. इस क्रांति का यही अंजाम होना था. सिर्फ निष्क्रिय विरोधों से कुछ भी नहीं होनेवाला. हल एक ही है- अपनी शक्ति के बल पर सिर्फ सैनिक विप्लव. उन्हें देश छोड़ देने को बाध्य और विवश कर देना और इसके लिये सबसे जरूरी है- स्व उद्योगों को प्रस्फुटित और विकसित करना…”
राजनैतिक जानकारियो में अपनी उतनी दिल्चस्पी न होने के कारण मैंकुछ पन्ने लगातार पलटती हूं. अब सामने जो पन्ना आया है उसे बार-बार पढ़ती हूं. फिर आगे-पीछे के पन्नों को भी तरतीबबार पढ़ती हूं. ऐसा कैसे हो सकता है..? ऐसा हो सकता है क्या? मैंने कुछ गलत तो नहीं पढ़ लिया? खुद को और अपने पढ़े को जांचने की जिद से… पर बार-बार पढ़ने के बाद भी तथ्य बदलते नहीं बिल्कुल. जस के तस बने रहते हैं. मैं हतप्रभ सी उन पन्नों को फिर-फिर पढ़ रही हूं… जहां-तहां से पढ़ रही हूं.
चिट्ठियों में दिखते सच बड़े अधूरे हैं. पर फिर भी भरे-पूरे और कुछ हदतक भावुक भी.
भाई जी, मैं भी आया तो था- प्रफुल्ल और खुदी के साथ-साथ ही. योजना भी मैंने ही बनाई थी. पर अन्त समय यह निर्णय हुआ कि इसे क्रियान्वित उन दोनों को करना है… घर के इतने पास आकर भी घर नहीं आ सका. नहीं मिल सका आपसे और माईजी से भी. क्षोभ है. पर हालात ऐसे नहीं थे. और यह भी शायद कि देश पर कुर्बान हो सकूं मैं, इसका सही वक्त नहीं आया है अभी. मैं हूं और जिन्दा हूं यह बताने की खातिर ही यह खत लिख रहा हूं…. खुदी पर मुकद्दमा चला और उसे फांसी हो गाई. प्रफुल्ल ने खुद को गोली मारकर आत्महत्या कर ली. अन्य क्रांतिकारी साथी कहते हैं कि वह डर गया था- अंग्रेज़ो की सजा के डर से… पकड़े जाने के डर से… पर जहां तक मैं उसे जानता हूं, इनमें से एक भी बात सच नहीं. वह एक भावुक और कवि हृदय इंसान था. मातृभूमि और मां की इज्जत हमारी संस्कृति का हिस्सा है. दुर्गा मां को हम पूजते हैं. वह अंजाने में ही सही उन दो औरतों और बच्चों के मर जाने की खबर से हिल गया था. किसी निरपराध के यूं ही मर जाने से…
यूं तो हमारे हृदय बहुत कठोर होते हैं, हमारे हाथ उन लोगों को मारते हुये कांपते नहीं जो आंदोलनकारियों को सजा दिलाने या कि फिर पकड़वाने में कामयाब हुये हों या की फिर इस तरह के किसी षडयंत्र में शामिल हुये हों. चाहे वह ढाका के मजिस्ट्रेट का उड़ाया जाना हो या फिर क्वीन विक्टोरिया को मारे जाने का निष्फल प्रयास या फिर अलीपुर के एस पी को मारा जाना.
यहां तक कि खुदीराम बोस मामले में भारतीय डी एस पी नन्दलाल बसु और दरोगा रामखुश को भी… हां, कांपते हैं हमारे हृदय अपने ही देशवासियों को ऐसी नृशंस सजा देने में… फिर सोचते हैं हम, जिसके हृदय में देश प्रेम का जज्बा नहीं, जहां बस अंग्रेज़ों के लिये वफादारी हिलोरें मार रही हो वह अपना कैसे हो सकता है… वह अपना कोई भाई-बन्द नहीं…
फिर भी निर्दोष व्यतक्तियों का मारा जाना इस सब से इतर हुआ न, एक अलग मामला… इसके लिये कोई तर्क नहीं था हमारे पास. जिसके लिये प्रफुल्ल की आत्मा उसे कोसती रही…. और यह कचोट… वर्ना प्रफुल्ल कमजोर नहीं था बिल्कुल, डरपोक तो बिल्कुल भी नहीं… हां, इंसान था वह और इंसानियत बची थी उसमें.. और यही कचोट…
माईजी के सपनों को मैं पूरा नहीं कर सका कभी. पर उम्मीद है आप जरूर पूरा करेंगे… मैं भी दिन रात मिहनत करना चाहता हूं. पी सी एस की परीक्षा भी देना चाहता हूं. पर देश के हालात इन छोटे-छोटे सपनों पर सचमुच भारी हुये जा रहे हैं.
मैं तो शायद सोच भी नहीं पाता कुछ भी अगर आप साथ न होते. मेरे हर सोचे को अपनी हिम्मत और ताकत देने के लिये… मुझे यह भरोसा और यकीन दिलाने के लिये कि मैं ठीक कर रहा हूं, सही राह पर हूं… अगर आप न होते तो घर की जिम्मेदारियां किन कंधों पर छोड़कर आ पाता.. सिर्फ आपके होने भर से ही…
इस चिट्ठी ने मुझे बेचैन कर दिया था. मैं दादाजी से पूछता वह टाल जाते.. मां की जानकारी इस दिशा में शून्य थी. मैं इससे, उससे, सबसे पूछता फिरता…
ऐसे में ही कभी एक पुराने और बुजुर्गवार रैयत ने कहा था- ‘तुम्हारे चाचा मरे क्योंकि तुम्हारे बाप ने मुखबिरी करके पकड़वाया था उन्हें.’
‘क्यों…?’
क्योंकि वह अकेले सारी सम्पत्ति का हिस्सेदार होना चाहता था… ’क्योंकि उसे भूख थी अधिक से अधिक धन-सम्पत्ति की…. और वहीं उसी जेल में बीमारी की हालत में दम तोड़ गये थे वो. जेल क्या होता है पता है न तुम्हें? और तिस पर अंग्रेज़ों का कठोर रवैया…’
वह नशे में था. पिताजी के फर्माबरदारों में से भी नहीं था वह. सुनने में आया कि नशे में धुत्त पड़ा रहता है दिनरात. पर अकल्प चाचा को बचपन में उसने खिलाया था, पाला था.
मुझे गुस्सा तो बहुत आया था उसपर, इतना कि पकड़कर पीट दूं, जान ले लूं उसकी. बाबूजी के लिये ऐसी गलत बात, पर उसकी हालत देखकर दया आ गई. मन हुआ बाबूजी से जाकर कहूं सब. पर दिमाग ने कहा पीये हुये आदमी की बातो ंका क्या यकीन…
पर मन मथता रहता था यह सब. दिन रात चलता रहता भीतर यही सबकुछ. फिर एक दिन भरी दुपहर उसके पास गया और फिर सुनी उससे सारी बात.
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