विनायक सेन को उम्र कैद की सजा सुनाये जाने पर आखिर देश के जनतांत्रिक हलकों में इतनी बेचैनी क्यों है? क्या मानवाधिकार कार्यकर्ता देश के कानून से ऊपर हैं? अगर किसी को ये सवाल परेशान कर रहे हों तो उसे विनायक सेन, नक्सली नेता नारायण सान्याल और कोलकाता के व्यापारी पीयूष गुहा को सजा सुनाने वाले रायपुर के जिला और सत्र न्यायाधीश बीपी वर्मा की इस टिप्पणी पर गौर करना चाहिए- ‘फिलहाल जिस तरह आतंकवादी और नक्सली संगठन केंद्रीय अर्धसैनिक बलों, राज्य के पुलिसकर्मियों और निर्दोष आदिवासियों की हत्या कर रहे हैं, देश भर में जिस तरह का आतंक मचा रहे हैं, समाज में जैसा भय और अफरातफरी फैला रहे हैं, उसे देखते हुए यह अदालत आरोपियों के प्रति इतना उदार नहीं हो सकती कि उन्हें न्यूनतम सजा दी जाए.’ ज़ाहिर है, अदालत ने आरोपियों को अधिकतम सजा दी. इनमें नारायण सान्याल को प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी(माओवादी) के पोलित ब्यूरो का सदस्य बताया गया है, जबकि पीयूष गुहा पर माओवादियों के मददगार होने का आरोप है.
मगर विनायक सेन पर क्या आरोप है? उन पर आरोप है कि वे जेल में नारायण सान्याल से मिलते रहे और और उनकी चिट्ठियां उन्होंने पीयूष गुहा तक पहुंचाई. इसके आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि वे भी माओवादियों की तरह राज्यद्रोह और राज्य के खिलाफ षड़यंत्र रचने के दोषी हैं. अदालत जिन सबूतों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंची है, उनमें कितना दम है इस पर अभी उच्चतर न्यायालयों का फैसला आना बाकी है. बहरहाल, अभियोग पक्ष ने जिस तरह की दलीलें कोर्ट में पेश की थीं, उससे यह आम धारणा बनी थी कि उसका पक्ष कमजोर है. बल्कि उसकी कई दलीलें तो हास्यास्पद थीं. जैसे दिल्ली के इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट के लिए प्रयुक्त हुए संक्षिप्त शब्द आईएसआई को अभियोग पक्ष ने पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई बता दिया. विनायक सेन की पत्नी इलीना सेन द्वारा दिल्ली की इस संस्था से जुड़े वाल्टर फर्नांडीज़ को लिखी गई चिट्ठियों को पाकिस्तानी एजेंसी को भेजी गई चिट्ठियों के रूप में पेश किया. जो अभियोग पक्ष इतना नाजानकार हो, या जानबूझकर अदालत में ऐसे भ्रम पैदा कर रहा हो, उसकी विश्वसनीयता वैसे ही संदिग्ध हो जाती है. वैसे में जागरूक जनमत की अदालत से यह अपेक्षा बेजा नहीं है कि वह अभियोग पक्ष के प्रति सख्त रुख अख्तियार करती.
बहरहाल, यह ठीक है कि अदालत ऐसी अपेक्षाओं के मुताबिक़ चलने के लिए बाध्य नहीं है. लेकिन यह तो उसका दायित्व और संवैधानिक कर्तव्य है कि वह ठोस सबूतों के आधार पर और अपराध के अनुपात के मुताबिक फैसला दे. नारायण सान्याल को जिस जेल में रखा गया है वहां के अधिकारियों ने अपनी गवाही में साफ शब्दों में कहा कि विनायक सेन जब भी सान्याल से मिलने आये, उनकी मुलाकात अधिकारियों की कड़ी निगरानी में हुई और इस दौरान चिट्ठियों का कोई आदान-प्रदान नहीं हुआ.
अदालत ने इस गवाही पर तो गौर नहीं किया, लेकिन जेल के एक दूसरे कर्मचारी की इस गवाही को बहुत अहम मान लिया कि सेन जब मिलने आये तो उन्होंने सान्याल को अपना रिश्तेदार बताया था. सेन का पक्ष रहा है कि वे पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (छत्तीसगढ़) के महासचिव के रूप में सान्याल से मिलने जाते थे, उनकी सान्याल से कोई रिश्तेदारी नहीं है. क्या सेन जेल में या उसके बाहर जो भी मिलता उसके सामने पीयूसीएल और सान्याल से उसके या अपने पूरे संबंधों की व्याख्या करते हुए सान्याल से मिलने जाते? हालाँकि जुबानी बातचीत का कोई सबूत सम्बंधित कर्मचारी के पास भी नहीं होगा, लेकिन अगर सेन ने किसी से हलके अंदाज़ में रिश्तेदारी की बात कह भी दी होगी, तो उससे क्या साबित हो जाता है?
अदालत ने इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट को इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस बताने वाले अभियोग पक्ष की साख पर तो कोई सवाल नहीं उठाया, लेकिन विनायक सेन द्वारा नारायण सान्याल को कथित तौर पर अपना रिश्तेदार बताने के आधार पर उनकी विश्वसनीयता संदिग्ध मान ली. और अनिल कुमार सिंह नाम के एक व्यापारी की गवाही को ठोस सबूत मानते हुए अदालत इस निष्कर्ष पर पहुँच गई कि ‘इससे ज़ाहिर होता है कि अभियुक्तों के सोच में समानता थी और इससे ये तथ्य स्थापित होते हैं कि राजद्रोह की साजिश रची गई.’ अनिल कुमार सिंह अभियोग पक्ष का अकेला गवाह है, जिसे पीयूष गुहा की गिरफ्तारी के वक्त की बताई गई कहानी को साबित करने के लिए पेश किया गया. सिंह ने गवाही दी कि गुहा से उसके सामने तीन चिट्ठियां बरामद हुईं. गुहा से पुलिस ने पूछा कि उसे ये चिट्ठियां किसने दी, तो उसने बताया कि विनायक सेन जेल में नारायण सान्याल से मिलते थे और ये चिट्ठियां सान्याल ने उन्हें दी थीं. सिंह के मुताबिक उसने गुहा को यह कहते हुए सुना कि सेन ने उसे चिट्ठियां देते हुए उन चिट्ठियों को कोलकाता ले जाने को कहा था.
यहाँ यह गौरतलब है कि अगर अनिल कुमार सिंह ने गुहा को यह कहते हुए सुना, तब भी यह बयान पुलिस के सामने दिया गया बयान है. जज ने इस संबंध में बचाव पक्ष की इस दलील को कोई तवज्जो नहीं दी कि पुलिस के सामने दिया गया अभियुक्त का कोई बयान क़ानून के तहत स्वीकार्य नहीं होता. इसके विपरीत उन्होंने अपने फैसले में कहा है कि सिंह गिरफ्तारी के समय मौजूद गवाह है, इसलिए उसका बयान भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत मान्य है.
तो कुल मिलाकर इस तरह वह केस बना है, जिसके आधार पर विनायक सेन को उम्र कैद की सजा सुना दी गई है. लेकिन न्यायिक निष्कर्ष तक पहुँचने के कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में बिना कोई दखल दिए यहाँ यह सवाल ज़रूर अहम है कि अगर विनायक सेन ने सान्याल की चिट्ठी गुहा तक पहुंचाई भी तो क्या इस अपराध का अनुपात इतना है कि उन्हें उम्र कैद सुनाई जाए? क्या विनायक सेन पर बम बनाने या किसी की हत्या का आरोप है? या किसी खास हत्या की साजिश में शामिल होने का आरोप है? अगर सेन का अपराध साबित भी होता है, तो यह अधिक से अधिक एक प्रतिबंधित संगठन से जुड़े दो लोगों के बीच संदेशवाहक बनने का है. क्या इसके लिए अधिकतम सजा विवेक और तर्क की कसौटी पर उचित मानी जा सकती है?
इसी बिंदु पर आकर यह सवाल खड़ा होता है कि रायपुर के जिला और सत्र न्यायलय का यह फैसला ठोस अर्थों में न्यायिक है या इस पर एक खास तरह के राजनीतिक सोच का असर है? सजा सिर्फ विनायक सेन को दी गई है या इसके ज़रिये उन तमाम लोगों और समूहों को सन्देश देने की कोशिश है, जो सुरक्षा, सामाजिक स्थिरता और शांति के बारे में तथाकथित मुख्यधारा सोच से सहमत नहीं हैं? और इस रूप में क्या यह फैसला असहमति की आवाज़ को दबा देने की कोशिशों का हिस्सा नहीं बन जाता है?
माओवादियों की राजनीति निस्संदेह अराजक और नकारवादी है. राजसत्ता के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर जनतांत्रिक विमर्श के दायरे को संकुचित करने में वे असल में राजसत्ता के सहायक बने हैं. इसके बावजूद गौरतलब यह है कि उन्हें देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार करते रहे हैं कि माओवादियों की देश के एक बड़े हिस्से में मौजूदगी आदिवासियों और अन्य कमज़ोर तबकों को न्याय से वंचित रखे जाने का परिणाम है.
राजसत्ता के सबसे बड़े प्रतिनिधि की अगर यह समझ है तो क्या यह अपेक्षा रखना उचित और न्यायपूर्ण हो सकता है कि देश के व्यापक लोकतान्त्रिक दायरे में सभी माओवादियों को उसी तरह अपराधी और आतंकवादी मानें, जैसा कि देश के शासक वर्ग या दक्षिणपंथी समूहों की मान्यता है? और इस परिप्रेक्ष्य में विनायक सेन अगर नारायण सान्याल से मिलते थे और जैसा कि अदालत नतीजे पर पहुंची है कि उन्होंने सान्याल की चिट्ठी उनके किसी सहयोगी तक पहुंचा दी, तो क्या उसके लिए सेन को राजद्रोह की कठोरतम सजा सुना दी जानी चाहिए?
चूँकि यह फैसला अगर अपर्याप्त नहीं तो कम से कम आधे-अधूरे और महज परिस्थितिजन्य सबूतों के आधार पर सुनाया गया लगता है और उस आधार पर कठोरतम सजा सुना दी गई है, इसलिए समाज के एक बड़े हिस्से का इस फैसले के पीछे एक किसी राजनीतिक दर्शन की भूमिका देखना संभवतः गलत नहीं है. इस क्रम में इस फैसले के सन्दर्भ में भी कमोबेश वही सवाल उठते हैं जो अयोध्या विवाद पर सितम्बर में आये इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले से उठे थे. यह प्रश्न एक बार फिर प्रासंगिक है कि न्यायिक फैसले ठोस सबूतों और उनके वास्तविक सन्दर्भ के आधार पर होने चाहिए, या आस्था, किसी राजनीतिक दर्शन के प्रभाव या किसी न्यायेतर उद्देश्य की पूर्ति के लिए?
इसलिए यहाँ सवाल यह नहीं है कि क्या मानवाधिकार कार्यकर्ता क़ानून से ऊपर है? बहुत से लोगों की इस शिकायत में दम हो सकता है कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं या संगठनों का एक हिस्सा एकांगी सोच से चलता है और भारतीय राजसत्ता के स्वरुप और भूमिका के प्रति बेहद नकारात्मक नजरिया रखता है. यह बात भी निर्विवाद है कि अगर कोई मानवाधिकार कार्यकर्ता क़ानून का उल्लंघन करता है तो उसे ज़रूर सजा होनी चाहिए. लेकिन विनायक सेन के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण बात यह सवाल या शिकायत नहीं है. यहाँ सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर एक जनतांत्रिक लेकिन वर्गों में बंटे समाज में न्यायपालिका की क्या भूमिका है और उससे कैसी उम्मीदें रखी जानी चाहिए?
इस सन्दर्भ में यह सामान्य अपेक्षा है कि न सिर्फ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं से सम्बंधित मामलों बल्कि हर् न्यायिक मामले में निष्कर्ष तक पहुँचने और सजा की मात्रा तय करने में इन्साफ हुआ ज़रूर दिखना चाहिए. चूँकि विनायक सेन के मामले में इन दोनों ही पहलुओं में तार्किकता और न्याय के सिद्धांतों का पालन हुआ नहीं दिखता है, इसलिए देश के व्यापक जनतांत्रिक दायरे में इतनी बेचैनी है. अयोध्या मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को साक्ष्य और तर्क पर आस्था को तरजीह देने की मिसाल मन गया था. विनायक सेन के मामले में साक्ष्य और तर्क पर एक खास राजनीतिक सोच को तरजीह मिलने का आभास हुआ है. इसलिए जनतांत्रिक विमर्श में यह सवाल उठ रहा है कि क्या न्यायपालिका का एक हिस्सा लोकतंत्र के बुनियादी उसूलों पर प्रहार करने में दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक समूहों का सहचर बन गया है?
जनसत्ता से साभार
जनसत्ता से साभार
36 Comments
यदि इलाज़ के मामले में मुलाकातें थीं तो क्या कोर्ट व विनायक सेन के वकील इतेने वेवकूफ़ थे कि इसे समझ व समझा नहीं पाये..
—-इलाज़ के सिलसिले में भी इतनी मुलाकातें नहीं होसकतीं…यदि इतना सीरियस रोग था तो अस्पताल में या जेल के चिकित्सक को क्यों नहीं भेजा गया…
—क्या इस बहाने अयोध्या मामले को भी उठाने का प्रयास है….कोर्ट व्यक्तिगत मामलों में तो एक तरफ़ा सोच सकता है परन्तु कोर्ट को इस मामले में क्या पडी अन्यथा सोचने की…
जरूरी आलेख, यहाँ यह भी जानना जरूरी है कि नारायण सान्याल से जेल में बिनायक सेन की मुलाकातें इलाज के सिलसिले में हुआ करती थीं, जो जेल अधिकारियों की अनुमति और उनकी मौजूदगी में संपन्न होती थीं. यह भी कि जब रायपुर की अदालत में यह फैसला सुनाया जा रहा था, लगभग उसी समय असम सरकार ने अदालत में, सशस्त्र विरोध करने वाले संगठन उल्फा के नेताओं की जमानत का विरोध न करने का फैसला किया. सिर्फ पत्रवाहक होने के आरोप में राजद्रोह का मुकदमा और उम्रकैद ज्यादती है. इसी तरह के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट पंजाब के शिक्षा विभाग के दो अधिकारियों के खिलाफ राजद्रोह के आरोप को निरस्त कर चुका है. उनपर आरोप था कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उन्होंने चंडीगढ़ के एक सिनेमा हाल के पास भीड़ भरी जगह पर, "खालिस्तान जिंदाबाद" और "राज करेगा खालसा" जैसे उत्तेजक नारे लगाए. इस मामले में निचली अदालत से सिर्फ एक साल की सजा हुई थी और यह भी सुप्रीम कोर्ट में टिक न सकी. सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि ये नारे सिख समुदाय को किसी भड़कीली प्रतिक्रया के लिए नहीं उकसा पाए. इसी तरह बिनायक सेन के मामले में भी यह जरूर देखा जाना चाहिए था कि यदि अभियोजन के आरोप को सच भी मान लिया जाए तो क्या सेन द्वारा पहुंचाए गए पत्रों की प्रतिक्रया में या उसके उकसावे में कोई हिंसात्मक या अन्यथा गतिविधि हुई.
सत्येन्द्र रंजन का लेख यह भी बताता है कि वास्तव में हमारी न्यायपालिका का ज्यादातर हिस्सा किस तरह काम करता है। जहां अधकचरे सबूतों और अनुमानों के आधार पर फैसले दे दिए जाते हैं।
यह दुखद है पर हमें वास्तव में शुक्रगुजार होना चाहिए कि इस केस के बहाने सत्ता का यह चेहरा भी सामने आ रहा है।
इस मुश्किल समय में एक संतुलित आलेख। इस सज़ा का निहितार्थ बस यह लगता है कि छत्तिसगढ़ की सरकार (और असल में वर्तमान सत्ता वर्ग) देश भर की सिविल सोसाईटी और पूंजीवाद विरोधी ताक़तों को जीरो टालरेंस का स्पष्ट संदेश देना चाहती है। यह हमारे लोकतंत्र के 'बनाना रिपब्लिक' में तब्दील होते जाने का परिचायक है और आने वाले फासीवाद की पदचाप।
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