१९१२ में बनी फिल्म ‘पुंडलीक’ क्या भारत की पहली फीचर फिल्म थी? दिलनवाज का यह दिलचस्प लेख उसी फिल्म को लेकर है- जानकी पुल.
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इस महीने में भारत की पहली फीचर फिल्म ‘पुंडलीक’ निर्माण का शतक पूरा कर रही है.
अमीर हो या गरीब… बंबई ने इस ऐतिहासिक घटना का दिल से स्वागत किया। उस शाम ‘ओलंपिया थियेटर’ में मौजूद हर वह शख्स जानता था कि कुछ बेहद रोचक होने वाला है। हुआ भी… दादा साहेब द्वारा एक फिल्म की स्क्रीनिंग की गई…पहली संपूर्ण भारतीय फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ के प्रदर्शन ने हज़ारों भारतीय लोगों के ख्वाब को पूरा किया। तात्पर्य यह कि भारतीय सिनेमा सौवें साल में दाखिल हो गया…जोकि एक उत्सव का विषय है।
धुंधीराज गोविंद फालके (दादा साहेब फालके) हांलाकि इस मामले में पहले भारतीय नहीं थे। उनकी फिल्म से एक वर्ष पूर्व रिलीज़ ‘पुंडलीक’ बहुत मामलों में पहली भारतीय फिल्म कही जा सकती है, लेकिन कुछ विदेशी तकनीशयन होने की वजह से इतिहासकार इसे पहली संपूर्ण भारतीय फिल्म नहीं मानते। फालके ने अपनी फिल्म को स्वदेश में ही पूरा किया जबकि तोरणे ने ‘पुंडलीक’ को प्रोसेसिंग के लिए विदेश भेजा,फिर फिल्म रील मामले में भी फालके की ‘राजा हरिश्चंद्र’ तोरणे की फिल्म से अधिक बडी थी।
पुंडलीक के विषय में फिरोज रंगूनवाला लिखते हैं…
‘दादा साहेब तोरणे की ‘पुंडलीक’ 18 मई,1912 को बंबई के कोरोनेशन थियेटर में रिलीज़ हुई। महाराष्ट्र के जाने–माने संत की कथा पर आधारित यह फिल्म, भारत की प्रथम कथा फिल्म बन गई। पहले हफ्ते में ही इसके रिलीज़ को लेकर जन प्रतिक्रिया अपने आप में बेमिसाल घटना थी, जो बेहतरीन विदेशी फिल्म के मामले में भी शायद ही हुई हो। वह आगे कहते हैं ‘पुंडलीक को भारत की पहली रूपक फिल्म माना जाना चाहिए, जो कि फाल्के की ‘राजा हरिश्चंद्र’ से एक वर्ष पूर्व बनी फिल्म थी’
बहुत से पैमाने पर पुंडलीक को ‘फीचर फिल्म’ कहा जा सकता है :
1)कथा पर आधारित अथवा प्रेरित प्रयास 2) अभिनय पक्ष 3) पात्रों की संकल्पना 4)कलाकारों की उपस्थिति 5) कलाकारों के एक्शन को कैमरे पर रिकार्ड किया गया।
टाइम्स आफ इंडिया में प्रकाशित समीक्षा में लिखा गया ‘पुंडलीक में हिन्दू दर्शकों को आकर्षित करने की क्षमता है। यह एक महान धार्मिक कथा है, इसके समान और कोई धार्मिक नाटक नहीं है। पुणे के ‘दादा साहेब तोरणे’(रामचंद्र गोपाल तोरणे)में धुंधीराज गोविंद फालके(दादा साहेब फालके) जैसी सिनेमाई दीवानगी थी। उनकी फिल्म ‘पुंडलीक’ फालके की फिल्म से पूर्व रिलीज़ हुई, फिर भी तकनीकी वजह से ‘राजा हरिश्चंद्र’ की पहचान पहली संपूर्ण भारतीय फिल्म रूप है। तोरणे की फिल्म को ‘भारत की पहली’ फ़ीचर फिल्म होने का गौरव नहीं मिला| पुंडलीक के रिलीज़ वक्त तोरणे ने एक विज्ञापन भी जारी किया, जिसमें इसे एक भारतीय की ओर से पहला प्रयास कहा गया। बंबई की लगभग आधी हिन्दू आबादी ने विज्ञापन को देखा। लेकिन यह उन्हें देर से मालूम हुआ कि ‘कोरोनेशन’ में एक शानदार फिल्म रिलीज हुई है। पुंडलीक को तकरीबन दो हफ्ते के प्रदर्शन बाद ‘वित्तीय घाटे’ कारण हटा लिया गया।
तोरणे को फिल्मों में आने से पहले एक तकनीकशयन का काम किया। एक ‘बिजली कंपनी’ में पहला काम मिला। पर यह उनकी तकदीर नहीं थी। कंपनी में रहते हुए ‘श्रीपद थियेटर मंडली’ के संपर्क में आए । वह कंपनी के नाट्य–मंडली एवं नाटकों से बेहद प्रभावित हुए, फिर तत्कालीन सिने हलचल ने कला के प्रति उनके रूझान को आगे बढाया। बिजली कंपनी में कुछ वर्षों तक काम करने बाद मित्र ‘एन चित्रे’ के वित्तीय सहयोग से कलाक्षेत्र में किस्मत आजमाने का बडा निर्णय लिया। मित्र के सहयोग से विदेश से एक फिल्म कैमरा मंगवा कर ‘पुंडलीक’ का निर्माण किया। पुंडलीक निर्माण एक संयुक्त उपक्रम था, जिसमें दादा साहेब तोरणे एवं एन चित्रे(कोरोनेशन सिनेमा के स्वामी) एवं प्रसिध फिल्म वितरक पीआर टीपनीस की कडी मेहनत थी । तोरणे ने फिल्म को रचनात्मक उतकृष्टता प्रदान की जबकि चित्रे एवं टीपनीस ने वित्तीय व वितरण की जिम्मेवारी निभाई। तोरणे ने शूटिंग लोकेशन रूप में बंबई के ‘मंगलवाडी परिसर’ को चुना, जहां श्रीपद मंडली के मराठी नाटक का सफल फिल्मांतरण किया।
तोरणे द्वारा स्थापित ‘सरस्वती’ फिल्म प्रोडक्शन(सरस्वती सिनेटोन) के तहत अनेक उल्लेखनीय फिल्मों का निर्माण हुआ जिसमें : श्यामसुंदर, भक्त प्रहलाद, छ्त्रपति शम्भाजी, राजा गोपीचंद, देवयानी जैसी फिल्मों का नाम लिया जा सकता है। रामगोपाल तोरणे सिनेमा कला में दक्ष रहे, माना जाता है कि सरस्वती बैनर की ज्यादातर फिल्मों की कथा पटकथा,संपादन,निर्माण,निर्देशन जैसे महत्त्वपूर्ण पक्षों को तोरणे ही देखते थे। पुंडलीक के निर्माण समय मोबाइल कैमरा की तकनीक नहीं थी, इसके माध्यम से फिल्म को केवल एक कोण पर ही रिकार्ड करना संभव था। रिकार्डिंग से तोरणे संतुष्ट नहीं हुए, इसलिए पूरी फिल्म अलग– अलग हिस्सोंमें रिकार्ड कर जोडने का निर्णय लिया। आजकल यह काम ‘संपादक’ करता है… तोरणे सिनेमा से जुडे महत्त्वपूर्ण तकनीकी पहलूओं के दक्ष जानकार थे। दुख की बात है कि इस सब के बावजूद रामगोपाल तोरणे को बडे अर्से तक गुमनामी में जीना पडा। वित्तीय संकट की वजह से ‘सरस्वती सिनेटोन’ सन 1944
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