एक किताब आई है- जियो उस प्यार में जो मैंने तुम्हें दिया है. यह अज्ञेय की प्रेम-कविताओं का संचयन है. संपादन किया है ओम निश्चल ने. पुस्तक किताबघर प्रकाशन से आई है. इस वासंती शाम उसी संकलन की कुछ कविताएँ- जानकी पुल.
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1.
जान लिया तब प्रेम रहा क्या? नीरस प्राणहीन आलिंगन
अर्थहीन ममता की बातें अनमिट एक जुगुप्सा का क्षण।
किंतु प्रेम के आवाहन की जब तक ओंठों में सत्ता है
मिलन हमारा नरक-द्वार पर होवे तो भी चिंता क्या है?
2.
हमारी कल्पना के प्रेम में, और हमारी इच्छा के प्रेम में, कितना विभेद है!
दो पत्थर तीव्र गति से आ कर एक दूसरे से टकराते हैं, तो दोनों का आकार परिवर्तित हो जाता है। किंतु वे एक नहीं हो जाते। प्रतिक्रिया के कारण एक-दूसरे से परे हट कर फिर स्थिर हो जाते हैं।
तो फिर हमारी प्रेम की कल्पना में क्यों इस अत्यंत ऐक्य–कैवल्य की कामना रहती है?
बिना स्वतंत्रा अस्तित्व रखे प्रेम नहीं होता। यदि मैं अपने को तुम में खो दूं, तो तुम से प्रेम नहीं कर सकूंगा। वह केवल प्रेम की ज्वाला से बच भागने का एक साधन है…
किंतु ज्ञान की इस प्रखर किरण से भी अप्राप्ति का वह दुर्भेद्य अंधकार कैसे मिटाऊं?
3.
जाना ही है तुम्हें, चले तब जाना,
पर प्रिय! इतनी दया दिखाना, मुझ से मत कुछ कह कर जाना!
सेवक होवे बाध्य की अनुमति ले कर जावे,
और देवता भी भक्तों के प्रति यह शिष्टाचार दिखावे;
पर तुम, प्राण-सखा तुम! मेरे जीवन-खेलों के चिर-सहचर!
क्यों उस का सुख नष्ट करोगे पहले ही से बिदा मांग कर
किसी एक क्षण तक अपना वह खेल अनवरत होता जावे;
मैं यह समझी रहूं कि जैसे भूत युगों में तुम संगी थे, वैसे,
साथ रहेगा आगामी भी युगों-युगों तक।
फिर, क्षण-भर में तुम अदृश्य, मैं अपलक,
पीड़ा-विस्मय में लखती रह जाऊं, कहां रहे तुम; और न उत्तर पाऊं–
एक थपेड़े में बुझ जावे जीवन-दीपक का आह्लादµ
किंतु बिदा के क्षण के क्षण-भर बाद!
मेरे जीवन के स्मित! तुम को रो कर बिदा न दूंगी–
आंखों से ओझल होने तक कहती यही रहूंगी:
‘आओ प्रियतम! आओ प्रियतम! पवन-तरी है मेरा जीवन,
तुम उस के सौरभ-नाविक बन, दशों दिशा छा जाओ, प्रियतम!’
जाना ही है तुम्हें, चले तब जाना,
पर प्रिय! इतनी दया दिखाना– मुझ से मत कुछ कह कर जाना!
4.
प्रियतम, आज बहुत दिन बाद!
आंखों में आंसू बन चमकी तेरी कसक भरी-सी याद!
आज सुना है युगों-युगों पर तेरे स्वर का मीठा मर्मर–
जिसे डुबाए था अब तक जग का वह निष्फल रौरव-नाद!
प्रियतम, आज बहुत दिन बाद!
छिन्न हुआ अंधियारा अंबर, चला लोचनों से बह झर-झर
विपुल राशि में संचित था जो मेरे प्राणों में अवसाद!
प्रियतम, आज बहुत दिन बाद!
रो लेने दो मुझ को जी भरµयही आज सुख सब से बढ़ कर!
मुझे न रोको आज कि मुझ पर छाया है उत्कट उन्माद!
प्रियतम, आज बहुत दिन बाद!
5.
मैं तुम्हारे ध्यान में हूं!
प्रिय, मैं तुम्हारे ध्यान में हूं!
वह गया जग मुग्ध सरि-सा मैं तुम्हारे ध्यान में हूं!
तुम विमुख हो, किंतु मैं ने कब कहा उन्मुख रहो तुम?
साधना है सहसनयनाµबस, कहीं सम्मुख रहो तुम!
विमुख-उन्मुख से परे भी तत्त्व की तल्लीनता हैµ
लीन हूं मैं, तत्त्वमय हूं अचिर चिर-निर्वाण में हूं!
मैं तुम्हारे ध्यान में हूं!
क्यों डरूं मैं मृत्यु से या क्षुद्रता के शाप से भी?
क्यों डरूं मैं क्षीण-पुण्या अवनि के संताप से भी?
व्यर्थ जिस को मापने में हैं विधाता की भुजाएंµ
वह पुरुष मैं, मत्र्य हूं पर अमरता के मान में हूं!
मैं तुम्हारे ध्यान में हूं!
रात आती है, मुझे क्या? मैं नयन मूंदे हुए हूं,
आज अपने हृदय में मैं अंशुमाली को लिए हूं!
दूर के उस शून्य नभ में सजल तारे छलछलाएंµ
वज्र हूं मैं, ज्वलित हूं, बेरोक हूं, प्रस्थान में हूं!
मैं तुम्हारे ध्यान में हूं!
मूक संसृति आज है, पर गूंजते हैं कान मेरे,
बुझ गया आलोक जग में, धधकते हैं प्राण मेरे।
मौन या एकांत या विच्छेद क्यों मुझ को सताए?
विश्व झंकृत हो उठे, मैं प्यार के उस गान में हूं!
मैं तुम्हारे ध्यान में हूं!
जगत् है सापेक्ष, यां है कलुष तो सौंदर्य भी है,
हैं जटिलताएं अनेकों– अंत में सौकर्य भी है।
किंतु क्यों विचलित करे मुझ को निरंतर की कमी यह–
एक है अद्वैत जिस स्थल आज मैं उस स्थान में हूं!
मैं तुम्हारे ध्यान में हूं!
वेदना अस्तित्व की, अवसान की दुर्भावनाएंµ
भव-मरण, उत्थान-अवनति, दुःख-सुख की प्रक्रियाएं
आज सब संघर्ष मेरे पा गए सहसा समन्वयµ
आज अनिमिष देख तुम को लीन मैं चिर-ध्यान में हूं!
मैं तुम्हारे ध्यान में हूं!
बह गया जग मुग्ध सरि-सा मैं तुम्हारे ध्यान में हूं!
प्रिय, मैं तुम्हारे ध्यान में हूं!
6.
वसंत की बदली
यह वसंत की बदली पर क्या जाने कहीं बरस ही जाय?
विरस ठूंठ में कहीं प्यार की कोंपल एक सरस ही जाय?
दूर-दूर, भूली ऊषा की सोयी किरण एक अलसानीµ
उस की चितवन की हलकी-सी सिहरन मुझे परस ही जाय.
7.
नन्ही शिखा
जब झपक जाती हैं थकी पलकें जम्हाई-सी स्फीत लंबी रात में,
सिमट कर भीतर कहीं पर
संचयित कितने न जाने युग-क्षणों की
राग की अनुभूतियों के सार को आकार दे कर,
मुग्ध मेरी चेतना के द्वार से तब
निःसृत होती है अयानी एक नन्ही-सी शिखा।
कांपती भी नहीं निद्रा
किंतु मानो चेतना पर किसी संज्ञा का अनवरत सूक्ष्मतम स्पंदन
जता देता है मुझे,
नर्तिता अपवर्ग की अप्सरा-सी वह शिखा मेरा भाल छूती है,
नेत्रा छूती है, वस्त्रा छूती है,
गात्रा को परिक्रांत कर के, ठिठक छिन-भर उमंग कौतुक से
बोध को ही आंज जाती है किसी एकांत अपने दीप्त रस से।
और तब संकल्प मेरा द्रवित, आहुत,
स्नेह-सा उत्सृष्ट होता है शिखा के प्रति:
धीर, संशय-हीन, चिंतातीत!
वह चाहे जला डाले।
(यदपि वह तो वासना का धर्म हैµ
और यह नन्ही शिखा तो अनकहा मेरे हृदय का प्यार है!)
8.
धूप-बत्तियां
ये तुम्हारे नाम की दो बत्तियां हैं धूप की।
डोरियां दो गंध की
जो न बोलें किंतु तुम को छू सकें।
जो विदेही स्निग्ध बांहों से तुम्हें वलयित किए रह जाएं
क्या है और मेरे पास?
हां, आस:
मैं स्वयं तुम तक पहुंच सकता नहीं
पर भाव के कितने न जाने सेतु अनुक्षण बांधता हूंµ
आस!
तुम तक
और तुम तक
और
तुम तक!
9.
पलकों का कंपना
तुम्हारी पलकों का कंपना
तनिक-सा चमक खुलना, फिर झंपना।
तुम्हारी पलकों का कंपना।
मानो दीखा तुम्हें लजीली किसी कली के
खिलने का सपना।
तुम्हारी पलकों का कंपना।
सपने की एक किरण मुझ को दो ना,
है मेरा इष्ट तुम्हारे उस सपने का कण होना।
और सब समय पराया है।
बस उतना क्षण अपना।
तुम्हारी पलकों का कंपना।
10.
मैत्री
मैं ने तब पूछा था:
और रसों में, क्या,
मैत्राी-भाव का भी कोई रस है?
और आज तुम ने कहा:
कितना उदास है
यह बरसों बाद मिलना!
प्यार तो हमारा ज्यों का त्यों है,
पर क्या इस नए दर्द का भी कोई नाम है?
11.
याद
याद: सिहरन: उड़ती सारसों की जोड़ी।
याद: उमस: एकाएक घिरे बादल में
कौंध जगमगा गई।
सारसों की ओट बादल,
बादल में सारसों की जोड़ी ओझल,
याद की ओट याद की ओट याद।
केवल नभ की गहराई बढ़ गई थोड़ी।
कैसे कहूं कि किस की याद आई?
चाहे तड़पा गई?
12.
बांहों में लो
आंखें मिली रहें
मुझे बांहों में लो
यह जो घिर आया है
घना मौन
छूटे नहीं
कांप कर जुड़ गया है
तना तार
टूटे नहीं
यह जो लहक उठा
घाम, पिया
इस से मुझे छांहों में लो!
आंखें यों अपलक मिली रहें
पर मुझे बांहों में लो!
13.
प्यार के तरीके
प्यार के तरीके तो और भी होते हैं
पर मेरे सपने में मेरा हाथ
चुपचाप
तुम्हारे हाथ को सहलाता रहा
सपने की रात भर…
14.
सुनो मैंने कहीं हवाओं पर
सुनो मैंने कहीं हवाओं को बांध कर
एक घर बनाया है
फूलों की गंध से उसकी दीवारों पर
मैं तुम्हारा नाम लिखता हूं
हर वसंत में
पतझर के पत्तों की रंगीन झरन
उसे मिटा जाती है एक खड़खड़ाहट के साथ
पर जाड़ों की निहोरती धूप
तुम्हें घर में खड़ा कर जाती है
प्रत्यक्ष:
उस भरे घर से
हर बहती हवा के साथ
मैं स्वयं बह जाता हूं
दूर कहीं
जहां भी तुम हो
मेरी स्मृति को फिर गुंजाते कि मैं फिर सुनूं
और लिखूं हवाओं पर
तुम्हारा नाम!
15.
अपने प्रेम के उद्वेग में
अपने प्रेम के उद्वेग में मैं जो कुछ भी तुम से कहता हूँ, वह सब
पहले कहा जा चुका है.
तुम्हारे प्रति मैं जो कुछ भी प्रणय-व्यवहार करता हूँ, वह सब भी
पहले हो चुका है.
तुम्हारे और मेरे बीच में जो कुछ भी घटित होता है उस से एक
तीक्ष्ण वेदना-भरी अनुभूति-मात्र होती है- कि यह सब पुराना है,
बीत चुका है, कि यह अनुभव तुम्हारे ही जीवन में मुझ से अन्य
किसी पात्र के साथ हो चुका है!
यह प्रेम एकाएक कैसा खोखला और निरर्थक हो जाता है!
16.
चुक गया दिन
‘चुक गया दिन’ –एक लंबी सांस
उठी बनने मूक आशीर्वाद-
सामने था आर्द्र तारा नील,
उमड़ आई असह तेरी याद!
हाय! यह प्रतिदिन पराजय दिन छिपे के बाद!
17.
राह बदलती नहीं
राह बदलती नहीं- प्यार ही सहसा मर जाता है,
संगी बुरे नहीं तुम- यदि निस्संग हमारा नाता है.
स्वयंसिद्ध है बिछी हुई यह जीवन की हरियाली-
जब तक हम मत बुझें सोच कर- ‘वह पड़ाव आता है!’
18.
तुम कदाचित न भी जानो
मंजरी की गंध भारी हो गई है
अलस है गुंजार भौंरे की- अलस और उदास.
7 Comments
अज्ञेय की प्रेमपरक अनुभूतियों से रूबरू कराने हेतु शुक्रिया ।
बहुत ही जानदार चयन प्रभात भाई!आभार!!
सुखद अनुभव
संवेदना..
प्रियवर,
जानकीपुल पर अज्ञेय की प्रेम कविताओं के चयन 'जियो उस प्यार में जो मैंने तुम्हें दिया है' के प्रस्तावन के लिए शुक्रिया। अज्ञेय वास्तव में अपनी प्रेम कविताओं में अनूठे हैं। इन कविताओं को पढ़ते हुए वास्तव में उनके अंतश्चित्त की वेदना-संवेदना, उल्लास,नेह-छोह से अवगत हुआ जा सकता है।
अकारण नहीं, कि अज्ञेयपर शताबदी वर्ष में सर्वाधिक काम हुए हैं। अभी हाल ही आई वाणी प्रकाशन से ओम थानवी के दो खंडों पर फैले संस्मरणों से पता चलता है, अज्ञेय कितने स्मृतिव्यापी हैं।उनकी थाह ले पाना संभव नहीं। यदि फिर भी किसी को उनके नेह की एक कनी भी हासिल हुई है तो वह धन्य है। कृतज्ञ हूँ कि उनके साथ ऐसे क्षणों का साझा करने का सुअवसर मुझे मिला है।
सविनय,
ओम निश्चल
बहुत बढ़िया। शुक्रिया। इसे पढ़ने के लिए पूरी फुर्सत में आउंगी। अज्ञेय जी को पढ़ने के लिए पूरी तल्लीनता चाहिए।
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