जयपुर के पास कनोता कैंप में ‘कथा कहन कार्यशाला’ का यह पाँचवा आयोजन था। देश के अलग अलग हिस्सों से अलग अलग पीढ़ी के लेखक आये। तीन दर्जन से अधिक प्रतिभागी आये और तीन दिन तक सुरम्य माहौल में कहानी और उसकी कला की बातें। प्रसिद्ध लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ के संयोजन में आयोजित इस आयोजन पर यह टिप्पणी लिखी है अंग्रेज़ी-हिन्दी के जाने-माने लेखक पंकज दुबे ने- मॉडरेटर
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‘कथा कहन कार्यशाला’ को लेकर पहली बार जिज्ञासा तब उठी थी जब कुछ साल पहले किसी लेखक मित्र की फ़ेसबुक पोस्ट पर नज़र पड़ी थी। ये तो बिलकुल साफ़ था कि कुछ साहित्य प्रेमी जयपुर में कोई वर्कशॉप करते हैं जिसमें किसी झील के किनारे कथा, कहानी, क़िस्सों का एक दिलचस्प माहौल बनता है, बहुत से नए पुराने साहित्यकार रचनात्मक संगत करते हैं। पता चला कि ये तो वरिष्ठ लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ की ब्रेन चाइल्ड है। हाल ही में जब उनकी फेसबुक पोस्ट से जैसे ही इस कार्यशाला की पहली पोस्ट दिखी तो मैंने उन्हें फ़टाक से लिख डाला कि ‘मेरा भी मन है ‘ जिसपर उनका काउंटर क्वेश्चन आया ,’सीखने का या सिखाने का?’ और इस संवाद को पूरा करते हुए मैंने लिखा, ‘दोनों’। बाद में उन्होंने मुझे पॉपुलर फ़िक्शन के मास्टरक्लास में बतौर मेंटॉर आने को कहा जो मेरे लिए बेहद उत्साहवर्धक था।
हिंदी कहानी और उसके विविध आयामों और माध्यमों पर होने वाली ‘कथा कहन’ एक तीन दिवसीय कार्यशाला है जिसका फ़ोकस इस बात पर है कि हिंदी साहित्य से लेखक के तौर पर जुड़ने के इच्छुक अभ्यर्थियों को कुछ सिखाने का एक रचनात्मक माहौल बनाया जाए। हालांकि मुझे ये भी लगता है कि कोई भी वीर जो हिंदी लेखक बनने का जोखिम उठाता है उसे अमूमन ज़्यादातर ज़रूरी बातों का अहसास होता है लेकिन इस तरह की कार्यशाला में जब जाने माने पुराने लेखक कुछ रेखांकित कर देते हैं तो नए लेखकों का कॉन्फिडेंस बढ़ जाता है। यही बात ‘कथा कहन’ को देश के बहुत से दूसरे साहित्योत्सवों से अलग बनाती है।
ज़्यादातर मेंटर्स , प्रतिभागियों और आयोजकों से ये मेरी पहली मुलाक़ात थी और आयोजन बेहद आत्मीय। मुंबई से जयपुर के लिए फ्लाइट लेने जब एयरपोर्ट पहुंचा तो वहीँ से अनुभव और उत्साह की संगत की शुरुआत हो गई।वरिष्ठ लेखिका सूर्यबाला जी से मिलकर उनसे इंस्टैंट कनेक्ट बन गया। पहले तो मुझे उनकी वरिष्ठता से डर लगा कि कहीं इन्हें भी सिर्फ़ अपना सफ़र स्वर्णिम और भविष्य में अज्ञानता का अंधकार तो नज़र नहीं आता है। लेकिन मैंने उन्हें जज करने में ज़रा भी जल्दी नहीं की और उनके स्नेह , विट , चुटीले संवाद और बेबाकीपन से इंस्टैंट कनेक्ट बन गया।बातचीत से अत्यंत कूल और हर पीढ़ी के लिए अनुकूल लगीं। साथ में मिले साहित्य , रंगमंच और दोस्ताने में दखल रखने वाले बेहद उत्साही विविध भारती के रेडियो प्रैक्टिशनर युनूस खान और उनकी मीडियाकर्मी और लेखिका पार्टनर ममता सिंह। ये सभी आपस में एक दूसरे को पहले से जानते थे जिससे मुंबई एयरपोर्ट पर ही हमारे बीच ‘कथा कहन’ की वॉर्म अप शुरू हो गई। तभी हमलोगों को ज्वाइन किया बॉलीवुड में क़रीब पच्चीस सालों से सक्रिय और कई नामचीन फ़िल्मों, वेब सीरीज़ और टेलीविज़न शोज़ की स्क्रीनप्ले राइटर विभा सिंह ने । उनका नाम काफ़ी पहले से सुन रखा था लेकिन मिलना पहली बार हुआ। उम्मीद से बहुत ज़्यादा ख़ुशी हुई। एकदम से फ़ीलिंग आई कि अगर कभी किसी बात पर ये डाँट भी लगाएंगी तो इनकी बात सुनी जा सकती है।
जयपुर पहुँच कर कथा कहन के लिए उनके रचनात्मक कैंपस ‘कानोता कैंप रिसोर्ट’ पहुंचे और वहां की हरियाली और झील किनारे के वातावरण ने यात्रा की पूरी थकान को पल भर में छू मंतर कर दिया। ‘कथा कहन कार्यशाला’ की एक बड़ी ख़ासियत ये भी दिखी कि यहाँ अन्य साहित्य उत्सवों की तरह ऐसे सत्र और लगभग जड़ हो चुके मठाधीश न के बराबर दिखे जो वर्षों से अरस्तु का आभास दिलाते हुए इस इंदाज़ में मिलते हैं जैसे वो सभ्यता को पहली बार सम्बोधित कर रहे हों।
‘कथा कहन कार्यशाला’ की शुरुआत सार्थक रंगकर्मी देवेंद्र राज अंकुर के निर्देशन में अमिताभ श्रीवास्तव और दुर्गा शर्मा अभिनीत एक बेहद इंटिमेट नाट्य प्रस्तुति से हुआ जो सूर्यबाला जी की कहानी पर आधारित था। तीन दिनों में विविध विषयों पर बहुत से सत्र हुए जिनमें मुझे इलस्ट्रेटर कनुप्रिया कुलश्रेष्ठ का एक सत्र बेहद दिलचस्प लगा जिसमें उन्होंने अपनी ऑडियो-विज़ुअल प्रेसेंटेशन के माध्यम से काफ़ी सरलता से ये बताने की सफ़ल कोशिश की कि बच्चे अपनी कहानियों में आख़िर क्या चाहते हैं ?
विभा सिंह का स्क्रीनप्ले पर मास्टरक्लास काफ़ी रोचक था जिसमें उनका लम्बा अनुभव उनकी गहराई की साफ़ वजह बनता दिख रहा था।जब कोई इंडस्ट्री प्रैक्टिशनर अपने विषय के बारे में बताता है तो मामला एकदम से प्रासंगिक लगने लगता है।
पॉपुलर फिक्शन पर मेरे अलावा कर्नल गौतम राजऋषि , नवीन चौधरी और कुश वैष्णव ने कमान संभाल ली वहीँ नए लेखकों को प्रकाशन की बारीकियों से रूबरू कराने के लिए वाणी प्रकाशन की अदिति माहेश्वरी और एक अन्य सत्र में अनबाउंड स्क्रिप्ट के प्रकाशक अलिंद माहेश्वरी अपना नज़रिया बताते नज़र आए।
कथा कहन में तीनों दिन विश्व प्रसिद्ध चित्रकार अखिलेश जी की एक प्रदर्शनी भी लगी हुई थी जिसमें बीस नायाब चित्र प्रदर्शित थे। अखिलेश जी से जब वहाँ के ओपन एयर छत पर मिलना हुआ और उनकी यात्रा का आभास हुआ तब लगा कि आज का साहित्यकार कितनी सुविधा से समकालीन अन्य कलाओं से कटा रहता है। ग़लत है। उसे इस “सानु की “ संस्कृति से फ़ौरन बाहर निकलने की आवश्यकता है ।
इस तरह के उत्सवों में काफ़ी मज़ेदार ये भी होता है कि कार्यशाला और सत्रों के इतर भी मिलने जुलने, लाइक माइंडेड लोगों से दोस्ती बढ़ाने, विचार विमर्श करने का मौक़ा रहता है।एक सुन्दर झील के किनारे बने ‘कानोता कैम्प रिसोर्ट’ और उसकी हरी भरी वादियों ने इस मौके को और भी रोमांचक बना दिया। झील किनारे रूहानी ऐय्याशी करते लेखक , हरे भरे लॉन में सूरज के ढलने के बाद अपने स्टेप काउंट्स बढ़ाती पीली सूट और गुलाबी साड़ियों में लेखिकाएं और अनौपचारिक ओपन माइक में अपनी अपनी प्रतिभा दर्शाते प्रतिभागियों ने इस आयोजन में कई सारे चाँद लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
“कथा कहन कार्यशाला’ के रोडमैप के बारे में लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ का कहना था कि अगले साल से ये आयोजन सिर्फ़ और सिर्फ़ कार्यशाला का ही होगा ताकि इसकी आइडेंटिटी फ़ीकी न पड़े। नवोदित लेखकों के लिए भी अपनी तैयारी करके आने वाले अनुभवी मेन्टरों से सीखने का अच्छा मौक़ा रहेगा।
वैसे, जयपुर का नाम सुनते ही मेरे मन में सबसे पहले ‘प्याज की कचौड़ी’ का ध्यान आ जाता है।पर इस रचनात्मक कैंपस में प्याज की कचौड़ी थी ही नहीं ।तीसरे दिन हमने कुश वैष्णव जो कि आयोजन में भी मदद कर रहे थे से गुज़ारिश भी की कि शहर से मंगवा देते, प्याज़ वाली कचौड़ियां। जब बाक़ी सब कुछ हो ही रहा है तो वो भी आ जातीं।उन्हें क्यों रोकना? इसपर उन्होंने वादा किया कि इस बार संभव नहीं है लेकिन अगले साल ज़रूर। बहरहाल, मैं और विभा सिंह एयरपोर्ट के लिए निकल पड़े और दूसरी कार में सूर्यबाल जी अपने पतिदेव के साथ थीं जिनकी मौजूदगी अमूमन सूर्यबाला जी की कहानियों में होती है , ऐसा उन्होंने पहले दिन ख़ुद अपने इंट्रोडक्शन में कहा था।
फ्लाइट में बोर्डिंग करने के बाद युनूस खान और ममता सिंह भी हमारी रो में ही मिले जो किसी दोस्त से मिलकर सीधे एयरपोर्ट पहुँच गए थे। उनसे पता चला कि वो भी अभी अभी ही आए हैं क्यूंकि रास्ते में अपने बेटे ‘जादू’ के लिए कहीं से ‘प्याज की कचौड़ी ‘ लेने रुक गए थे तो समय लग गया। ये सुनते ही हमारी आँखों की चमक लौट आई और लगा कि ये तो हमारे साथ जादू हो गया हो। वाकई ,’मैनिफेस्टेशन’ में दम है , मान लीजिए। मैंने और विभा ने बिना किसी संकोच के उनसे ‘प्याज़ की कचौड़ी ‘ मांग कर खा ली और कुश के लिए अगले साल का काम कुछ हल्का कर दिया। अब सिर्फ़ घेवर से काम चल जाएगा।
शुक्रिया कथा कहन , फिर मिलेंगे।
(पंकज दुबे मशहूर पॉप कल्चर कहानीकार हैं और अब तक पेंगुइन से उनकी दस किताबें प्रकाशित हो चुकीं हैं। आजकल यूट्यूब पर उनका चैट शो “स्मॉल टाउन्स बिग स्टोरीज़ ” काफी चर्चित है )