आश्रम में बचपन: विजया सती

आज पढ़िए विजया सती जी का यह संस्मरण ज़ी उनके बचपन के दिनों को लेकर है। विजया सती मैम दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज में प्राध्यापिका रही हैं। आजकल स्वतंत्र लेखन करती हैं। उनका यह संस्मरण पढ़िए-
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यह एक घिसी-पिटी सी कहन ही तो है – वे भी क्या दिन थे !
लेकिन थे तो कुछ ख़ास ही कि अब तक स्मृति से न गए.
राजधानी दिल्ली .. दिल है हिन्दुस्तान का, यहीं था वह आश्रम …सड़क किनारे. फिर भीतर जाने की लाल बजरी की लम्बी सड़क जिसके किनारे थे करौंदे के झाड़. उनके काँटों की खरोंच झेल-झेल कर हम तोड़ते थे लाल-सफ़ेद करौंदे. उन्हें दो टुकड़ों में काट कर नमक छिड़क दिया, दोनों हथेलियों की अंजुरी में नमक और कटे करौंदों को कस के हिलाया और बस चटकारे लेकर गप्प !
नीम के पेड़ों की बहार ऐसी थी वहां कि गर्मियों भर दोनों गाल पकी निबौलियों से फूले रहते और हम एक दूसरे से शर्त बदते – बता मेरे मुंह में कितनी गुठली?
आज से कई वर्ष पहले इलाके में भरपूर पहचान थी इसकी … कस्तूरबा की स्मृति में स्थापित हरिजन छात्राओं का आवासीय विद्यालय. वहां भारत के अलग-अलग प्रान्तों से आई लड़कियां हमारी सहेलियां होती. अलवर से आई पुष्पा मेघवाल से राजस्थानी सीख रहे हैं तो कभी हरयाणवी में बोल्लें ! गरबा भी सीख लिया और ‘नी अडिए, तू एद्दर आईं जराक’ वाली पंजाबी भी.
जहां पहले प्रयाग महिला विद्यापीठ की विद्या-विनोदिनी, विदुषी जैसी परीक्षाएं दिलवाई जाती थी, वहां बाद में उच्चतर माध्यमिक आवासीय विद्यालय हुआ तो हम भी यहीं पढ़ने लगे. संगीत हमारे विद्यालय में एक विषय ही था. कैसे भूलें संगीत मास्टर जी को.. जो बंद आँखों से अपने हस्ताक्षर ब्रेल में नहीं, पेन पकड़ कर करते ….एस डी चावला ! कक्षा में जो गाने से जी चुराता, उसी की तरफ पूरी हथेली लहरा कर मास्टरजी कहते … ये इधर मंजु तुम्हारी आव़ाज क्यों नहीं आ रही? छठी-सातवीं में पढ़ते हुए हम कभी हैरान नहीं हुए मास्टर जी की बात पर .. भरोसा करते थे कि मास्टर जी सब जान लेते हैं, इसलिए कक्षा में कोई गड़बड़ नहीं होनी चाहिए, पूर्ण अनुशासित रहना है !
आश्रम के खुले परिसर में मक्का, मूली, गाजर, लौकी, तोरी की फसलें लहलहाती, यहीं हमने पहले-पहल सौंफ के पौधों की खुशबू सूंघी. नीम, करौंदे, जामुन, अमरूद के पेड़ों के साथ-साथ परिसर में हमने बंदरों के साहचर्य में रहना भी सीख लिया था, अपने खान-पान के साथ-साथ अपने-आप को भी उनसे बचाना एक कवायद थी, लेकिन बचा भोजन उन्हें खिलाने का चाव भी मन में पाले रहते.
छात्रावास की वार्डन केरल निवासी सी. भारती अम्मा का ठोस वरिष्ठ नागरिक रूप भी क्या भुलाए जाने के लिए है? वे अपने हाथ की उँगलियों से ही अपने लम्बे सफेद-काले बाल सुलझा कर नीचे बालों में एक गांठ लगा लेती. सफ़ेद खादी की साड़ी में उनका सादगी भरा कड़क व्यक्तित्व .. भोजनालय में उनका स्वर गूंजता – ए रंजनी तुम देखती क्या बैठी है, …गरन गरन काना का लो ! .. (ए रजनी, तुम देखती क्या बैठी हो, गरम-गरम खाना खाना खा लो.) रसोई घर में इडली-दोसा-साम्भर की महक को उनसे शह मिली थी.
यादों में खनकती हैं उनकी चूड़ियाँ भी.. रसोईघर में खाना बनाने वाली बिमला और बिश्नी जिनके कन्धों पर हम अक्सर झूल जाते ! नहीं जानते थे तब कि श्रीमती बिमला परित्यक्ता थी और श्रीमती बिश्नी आश्रम के ही सफाई कर्मचारी की पत्नी. रसोई में सब्जी काटने के अलावा, रोटी बनाने में मदद करने की भी सब छात्राओं की बारी लगती. सर्दियों में इसका इन्तजार रहता, गर्मियों से उससे तौबा करने को जी चाहता. भोजन के समय बड़ी कक्षा की छात्राएं खाना परोसने का काम करती, शुद्ध शाकाहारी सादा भोजन, फिर यह मन्त्र पढ़ा जाता :…ॐ सहना ववतु, सहनो भुनक्तु, सहवीर्यम् करवावहै …
आश्रम के अलिखित नियम ..खादी पहनना, चरखे पर सूत कातना, सुबह-शाम की प्रार्थना सभा जब सब मिलकर भजन गाते .. म्हाने चाकर राखो जी ! प्रार्थना के लिए आश्रम भजनावली आधार पुस्तक थी, जिसमें गीता से स्थितप्रज्ञ के लक्षण हिन्दी अनुवाद के रूप में सस्वर पढ़े जाते. गांधी जी के प्रिय भजन ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ का उच्चारण हम न जाने कितने बरस तक ‘वैष्णव जन तोते ने कहिए’ करते रहे.. यानी तोते ने कहा..आश्रम के आँगन में तोते भी तो बहुत थे ! संगीत की कक्षा से अच्छे स्वर में गाने वाली छात्राएं चुनी जाती, जो सभी कुछ का पहला पाठ करती. फिर सभी छात्राएं उसे दोहराती.
रात में ठीक साढ़े नौ बजे सब बत्तियां बन्द, हाँ बिस्तर में लेटे-लेटे कुछ समय तक अन्ताक्षरी खेलने की छूट थी – पास-पास सटे बिस्तरों में गुनगुनाहट होती – समय बिताने के लिए करना है कुछ काम शुरू करो अन्ताक्षरी लेकर प्रभु का नाम ! अन्ताक्षरी में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने की वजह एक और भी थी – इसी समय तो कभी-कहीं पढ़ी-रटी टूटी-फूटी शायरी को उड़ेलने का मौक़ा भी मिलता था –
शीशी भरी गुलाब की पत्थर पे तोड़ दूं
सखी तुम्हारी याद में जीना भी छोड़ दूं !
सर्दी-गर्मी हर हाल में सुबह उठने का समय प्रात: पांच बजे ही रहता. नींद से जगाने के लिए घंटी बजाने की भी बारी आती, जिसमें कोई भूल-चूक स्वीकार न थी.
अपने कपड़े धोना-सुखाना, प्रेस करने के नाम पर तह करके तकिए के नीचे रखना, यह भी हमारी दिनचर्या में शामिल था ! साधारण खादी के कपड़े, हाथ से संवारने पर ही प्रेस किए जैसे लगते.
और वो स्टील की थालियां जिनमें रोटी, सब्जी, दाल और दही रखने का स्थान बना रहता था, अपने हाथ से धोकर एक स्थान पर रखनी होतीं. खादी भण्डार से बने मोटे गद्दे-रजाई पर हम कितनी उछल-कूद मचाते ! विद्यालय में पहनने के वस्त्र, साबुन, तेल सब नि:शुल्क मिलता था.
छात्रावास परिसर से बाहर जाना जबकि मना था, लेकिन उतने संगी-साथियों के बीच बाहर जाने की सुध ही कहाँ रहती? छुट्टी के दिन कहीं कबड्डी, कहीं खो-खो, कहीं स्टापू और कहीं बरामदों में गिट्टे खेलते समय का पता ही कहाँ चलता था ? कोई क्रोशिए से लेस बना रहा है, कोई चेन-स्टिच से फूल काढ़ रहा है.. समां बंधा रहता ..सब अपने-अपने कामों में मगन.
दो अक्टूबर की वह उत्सुक प्रतीक्षा – हमारे जीवन का त्यौहार सरीखा दिन. अपनी बढ़िया स्कूली पोशाक में सज-धज कर गांधी जयन्ती का उल्लास मन में समेटे राजघाट जाकर सामूहिक चरखा-यज्ञ में शामिल होने की ललक, उस दिन का विशेष भोजन. समय कब पंख लगा कर फुर्र हो जाता – हम सब सखी-सहेलियां गांधी जी और कस्तूरबा के जीवन की बतकहियों में डूबते-उतराते जान भी न पाते !
आश्रम जैसे एक परिवार था. पूरी तरह से आवासीय परिसर. माली भैय्या भौंदू राम और भय्यन जी की अजब-गजब बतियाँ और शब्दावली हमारे चेहरे की मुस्कान बनी रहती. ‘ऊ देखा, चीलगाड़ी जात रही आसमान मां’ भैय्यन जी आसमान में उड़ते हवाई जहाज को देखकर कहते. वे बहराइच के रहने वाले थे.
बाजार से तांगे में सामान भरवा कर लाने का जिम्मा महाराज जी का था, बाद में जाना उनका नाम तो पंडित रेलू राम शर्मा था. उनकी बूढ़ी मां आश्रम में सबकी दादी थी. वे जब बहुत बूढ़ी होकर लाठी टेक कर चलने लगी तो कुछ भी पूछने पर हंस कर कहती – बेटा ! राम जी ने कागद बढ़ाय राखे हैं … जब तक चल सकूं …
स्वावलंबी आश्रम के छोटे-छोटे खेत-खलिहान में श्रमदान करते हुए हम चोरी से मक्का तो तोड़ लेते, अब उसे भूनने का जुगाड़ कैसे हो? सोच के परेशान होने के बदले दूधिया मक्का कच्चा ही खा जाते !
पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को बड़े सवेरे हम सावधान-विश्राम की मुद्रा के बाद मार्चिंग करते हुए झंडे तले पहुंचकर गाते …
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा
झंडा ऊंचा रहे हमारा !
सदा शक्ति बरसाने वाला
वीरों को हरषाने वाला
मातृभूमि का तन-मन सारा
झंडा ऊंचा रहे हमारा.
कभी हम शिवरात्रि का व्रत धरते, कभी दशहरे के आस-पास रामलीला में दशरथ-कैकेयी संवाद दोहराते और यह पंक्तियाँ तो सबने रट ली थी –
आजा बाली लड़ने को
डर नहीं है मरने को !
इससे पहले कि भूल जाऊं – राम बहादुर और धन बहादुर अपने रक्षक चौकीदारों का बखान तो करूं !
‘झम झम झमकाउने पारलू, आँखिन में काजलू, मेरो भनो कोई छई ना’ की धुन पर धन बहादुर का नृत्य हमें उन्हीं से सीखी नेपाली भाषा में – अति राम्रो – बहुत सुन्दर – कहने को मजबूर कर देता.
और फिर विद्यालय का सालाना वार्षिक-समारोह… हमारे जीवन का सुनहला पन्ना ! सब मिलकर भारत के सभी प्रान्तों का प्रतिनिधित्व करने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम की तैयारियां करते ..कहीं रवीन्द्र नाथ ठाकुर के चंडालिका नाटक की रिहर्सल हो रही है, कहीं माथे पर बोड़ला सजाए, खादी की पीली चुनर, लाल लंहगा और हरा ब्लाउज पहने राजस्थानी लोकनृत्य का अभ्यास हो रहा है – कहीं गत्ते पर सुनहरा, सफ़ेद चमकीला कागज चिपकाकर हंसुली और कड़े का आकार दिया जा रहा है. यही तो हमारे आभूषण हैं जो नृत्य-गान में पहने जाएंगे !
मुख्य अतिथि के हाथों पुरस्कृत होना और शाम को ख़ास पूड़ी-सब्जी का रस लेना.. बस यही तो जिंदगी को गुलज़ार किए रहने को बहुत था उस समय !
छोटी-छोटी खुशियां तो छोटे-छोटे गम भी ! कभी लड़ पड़ी पक्की सहेलियां और कई दिनों तक बोलचाल बंद – ‘दांत मरोडूं तिनका तोडूं इस लड़की से कभी न बोलूँ’ ! रोना-बिसूरना, ताने और गालियाँ भी – कुत्ती कमीनी ! लेकिन अधिक दिनों तक न चल पाता रूठना, उसी आंगन में, उन्हीं कक्षाओं में, उसी भोजनालय में टकराव की संभावनाओं से इनकार कौन करे? सामने पड़ गए, मुस्कुरा दिए और बोलचाल खुल जाती. सखियां गलबहियां डाल नीम की डाल पर पड़े झूले में पींग बढ़ाती दिखती.
पूरे इलाके में अनुशासित छात्रावास और विद्यालय होने के नाते कस्तूरबा बालिका आश्रम की जो धाक थी…वह हमारे जीवन के आरंभिक वर्षों को संवार गई. बचपन में आश्रम के इस लाड-दुलार ने, सार-संभाल ने मुझे वह बनाया, जो मैं आज हूँ !
विजया सती
vijayasatijuly1@gmail.com