आज प्रसिद्ध कवयित्री सुमन केशरी की एक लंबी कविता ‘बीजल से एक सवाल’. बीजल से उसके प्रेमी ने छल किया था. उसे अपने दोस्तों के हवाले कर दिया. उसने आत्महत्या कर ली. बीजल के बहाने स्त्री-जीवन की विडंबनाओं को उद्घाटित करती यह कविता न जाने कितने सवाल उठाती है और एक लंबा मौन- जानकी पुल.
बीजल से एक सवाल
कैसेट तले बेतरतीब फटा कॉपी का पन्ना
कुछ इबारतें टूटी–फूटी
शब्द को धोता बूँद भर आँसू
पन्ने का दायाँ कोना तुड़ा़-मुडा़
मसल कर बनाई चिन्दियाँ
फैलीं इधर-उधर
कुछ मेज पर
कई सलवट पड़ी चादर पर
तो बेशुमार कमरे में
फर्श पर इधर-उधर
टूटे बिखरे पंख और रोएँ
कमरे में कैद पंछी के
फड़फड़ाता
उड़ता
निकले को व्याकुल
खुले आकाश में
एफ़ एम चीखता
घड़घड़ाता ट्राँजिस्टर
थका…..
थका…..
दरवाजा औंधा पड़ा था धराशाई
सामने टंगी थी एक आकृति
सफेद सलवार पहने
चेहरा छिपाए
पंखे के ब्लेड से
‘दीदी’ चीखा था भाई
‘बिटटो’ चिल्लाए पिता
माँ खडी थी मुँह में आँचल दबाए
फटी आँखों से घूरती
लटकती देह को
जिस पर चोटें अब भी ताजा थीं
पाँवों और कलाई पर
कसी गई रस्सी की
चाकू के नोक की
सिगरेट के झुलस की
जिन पर आठ दस मक्खियाँ अलसाई-सी बैठी थीं
और जाने कितनी भिनभिना रही थीं आस-पास
बेखौफ़
बाएँ पैर के अॅंगूठे पर बँधी पट्टी से
रिसता खून सूख गया था
सब कुछ ठहर गया था
एक उस पल में
छोड़ भिनभिनाती मक्खियों के
घड़घड़ाते ट्रांजिस्टर के
और थके कमजोर पंखों पर
शरीर तोल
घायल पंखों को फैला
बाहर उड़ने को व्याकुल पंछी के
जो बार-बार कभी
मुड़े पंखे पर बैठता तो
कभी खिड़की की सलाखों पर
कभी छत से टकरा
नीचे गिरने को होता
और किसी तरह
घायल कमजोर पंखों के सहारे ही
खुद को उड़ा लेता इधर-उधर
चीख सुन पट-पट खिड़कियाँ खुलीं
जंग खाए कब्जोंवाले
कई-कई दरवाजे खुले चर्र… चर्र… चीं
धड़-धड़ भागते हुए कदमों की आवाजें
पल भर बाद ही खड़ा था जनसमूह
घर के दरवाजे पर
आँखों में कौतुक और दिल में छुटकारे का चैन लिए
कि यह तो होना ही था
होना भी चही चाहिए था
पर (तो) कहा जनसमूह ने
आह! यह क्या हो गया
कैसे हुआ यह सब?
मानो कहना चाहता था
अब तो चुप्पी तोड़ो
अब तो चुप्पी तोड़ो
कहो क्या हुआ था उस रात
उस ‘हादसे’ की रात
आगे बढे़ लोग
पंछी पंख फड़फड़ा खिड़की पर जा बैठा सिकुड़ा- सा
बेचैन कातर नज़रों से ताकता
प्राणों की भीख माँगता
अनकही कहानी खुद गढ़ते थे लोग अब
सामने शरीर था कल्पना उकसाता
नज़रें अब शरीर तौलती थीं
भिन्न-भिन्न कोणों से
लम्बाई औसत सही
उभार मन भावन
त्वचा की लुनाई नीलेपन से और उभ्रर रही थी
चेहरा ढँक-सा गया था
काश! वह भी दिख पाता
पर हाँ, याद आया
आँखें बड़ी-बड़ी
कभी चौंकती कभी असमंजस में जड़ीं
उँगलियाँ लपेटती थीं
दुपट्टे का सिरा
पर कदम ऐसे मानों
मौका मिलते ही
थिरकने लगेंगे
पृथ्वी नाप लेंगे….पलभ्रर में
आत्मा की हलचल कौंधती थी देह में
फूट पड़ती थी कभी गीतों के बोल में
रेडियों के संग-संग
आज लटकी पड़ी थी वही देह शान्त
सब देखने-सुननेवालों को करती अशान्त
क्या हुआ था उस रात
उस हादसे की रात
कोरी चुनरिया-सा
औरत का जीवन
पल भ्रर में दाग लगे
पल भ्रर में खोंच
जग की निगाहों से बचती-बचाती
पिता की दहलीज से चिता की दहलीज तक
बीच पति गेह
जानती है वह भी
तो मानती है क्यों नहीं
लाँघती क्यों बार-बार वह लखन रेख…….
मन्त्रोच्चार-सी ये बातें कही गईं सुनी गईं
बिना कहे सुने भी
आत्मा बस भटकती रही कमरे में बन्द पंछी-सी
सिर्फ उसे पता था
क्या हुआ था उस रात
क्या हुआ था उस रात
उस हादसे की रात
भय में
पीड़ा में
मृत्यु में
बदलती
विश्वास की रात
आनन्द की रात
प्रेमी था वह तो
फिर क्यों किया उसने ऐसा व्यवहार
औरत का प्रेम तो
संशयों पर पलता है
समाज की निगाहों से
संस्कार की जकड़नों से
अहं के भावों से
बचता-टकराता
विश्वास की डाल पकड़
बेल-सा चढ़ता है
(आत्मा से देह तलक)
औरत के लिए प्रेम
जीवन की सीप में
स्वाति की बूँद बन
मुक्ति-सा पलता है
बूझ नहीं पाता यह
आत्ममुग्ध हिंस्र पौरूष
जिसके लिए प्यार-व्यार तिरिया चरितर है
टाईपास भर
गुड़िया -सी सजी धजी
गुड़िया -सी चाभी लगी
गुड़िया -सी गुंगी ही
औरत उसे पसन्द
बोलते ही गुड़िया को तोड़ता मरोड़ता वह
आत्मा फिर भी बची रहती
प्रश्नों के रूप में
फन काढ़े नागिन को
पाँवों से कुचलता वह बेइज्जती के
बना छोड़ता उसे बस देह भर
कपड़े-सा बरतकर फेंक देता उसे
गलियों में
पाँवों तले रूँदने को
52 Comments
औरत का प्रेम तो
संशयों पर पलता है
समाज की निगाहों से
संस्कार की जकड़नों से
अहं के भावों से
संवेदनशील कविता के लिए आभार
kushnaseeb hain wo…jinhein wastu nahin smjha jata…..baki behaal hain…..
बेहद सटीक टिप्पणी की है सईद सर..
@सुमन-काव्य
उनके ये 'स्त्री-संस्मरण' तिरिस्कृत कर दी गयी स्त्री के सम्मान की पुनर्वापसी का उद्घोष प्रतीत होते है.
क्यूंकि 'किसी और के हिस्से की धूप में सुलगने के लिए आत्मबल चाहिए..जो कायरों के पास नहीं होता'
'सुमन जीजी की स्त्री स्पर्श करती है'..
स्पं-दि-त करती है ..और..सीधे छूती है सदियों से घायल स्त्री ह्रदय की उस कोमल भावना को जिसके साथ पुरुष जैविकता नें बार-बार व्यभिचार किया है.वेदना पर कलम घिस देना किसी लेखक के लिए सरल है.. और उस पर गलदश्रु श्रोताओं की तालियाँ बटोर लेना उससे भी अधिक सरल है यदि,कुछ मुश्किल
है तो वह है रचना प्रक्रिया में उस पीड़ा को जीवंत कर देना.. उस दर्द को पालना.. और उस छ-ट-प-टा-ह-ट से, उन प्रश्नों से आत्म-संघर्ष करना जो अबूझ हैं..अनुतरित ही रह गए हैं.
अपनी सुविधा के नाम पर स्त्री देह को ढकने-उघाड़ने की ऐतिहासिक भूमिका का निर्वहन पुरुष समाज नें अब तक बगैर किसी विचलन के किया है.सम्वेदना के नाम पर ठूंठ और आधुनिकता/समानता के नाम पर पुरुष हो चुकी स्त्री भी इसी जैविकता का बाई प्रोडक्ट हैं इसलिए जिम्मेदार तो वे भी हैं..
स्त्री कोई आरामगाह नहीं है की कोई भी आए और सुस्ता ले ..या सो जाए..
स्त्री तो आश्रय है मनुष्य के चेतनता-बोध का उसके अस्तित्व का और समस्त भावों का भी..
औरत का प्रेम तो
संशयों पर पलता है
समाज की निगाहों से
संस्कार की जकड़नों से
अहं के भावों से
बचता-टकराता
विश्वास की डाल पकड़
बेल-सा चढ़ता है
(आत्मा से देह तलक)……बहुत ही मार्मिक और रौंगटे खड़े कर देने वाली कविता है… कविता में दर्द और संवेदनशीलता के उन अनछुए बिन्दुओं को छुआ है जो एक औरत के लिए, समाज के लिए सदैव प्रासंगिक हैं….आपकी अभिव्यक्ति को नमन है दी………एक तो ये इंसिडेंट ही इतना भयावह था कि स्मृति से जाता ही नहीं, आपकी कविता से वे तमाम ख़बरें फिर से सामने आ गयी, मुझे तो लगा कि बीजल स्वयं प्रतिकार कर रही है…….आपकी संवेदनशीलता अद्भुत है और वही कविता को इतना मार्मिक बना देती है…..और एक औरत और दो बेटियों की माँ होने के नाते इस कविता ने मुझ पर गहरा प्रभाव छोड़ा था, दुनिया कितनी असुरक्षित जगह हो गयी है…….
हृदय विदारक कविता…! बेधने वाले प्रश्न!
औरत का जीवन
बस कोरी चुनरिया है?…………..क्यों आँका जाता है औरत को उसके कोरेपन से ……उसको मर्दित करने वाले हाथों को उसकी बची हुई आत्मा का श्राप का भय भी रहता है क्या ? ….प्रश्न….
बीजल … एक काव्य कथा ही है .. अख़बारों से बाहर कब आई वह ? बीजल की ये कविता काव्य चित्र भी है .. वेदना के कई मरोड़ एक साथ महसूस होते हैं , इसे पढ़ते में . इस संवेदनशील व्यथित करने वाली कविता के लिए दीदी और प्रभात का आभार ..
is samaj main vikas to ho raha hai ,lakin aurato ke prati wahi rudhivadi vyavahar aur soch hai jo purane samay se chala aa raha hai. main aise soch ka purjor virodh karati huun………………….
June 15, 2011 1:27 PM
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is samaj main vikas to ho raha hai ,lakin aurato ke prati wahi rudhivadi vyavahar aur soch hai jo purane samay se chala aa raha hai. main aise soch ka purjor virodh karati huun………………….
इस कविता पर इतनी मार्मिक पर्तिक्रियाएं मिलीं, इसके लिए आप लोगों का धन्यवाद… सईद ने इसे काव्य कथा कहा…मैं इससे सहमत हूं…मैंने ऐसा प्रयोग अपनी कई कविताओं में किया है- राक्षस पदतल…,सीता-सीता, फौजी आदि..ये कविताएं भी याज्ञवल्क्य में संकलित हैं.
मैं इस कविता को पढ़ कर कविता की शक्ति (जिसके बारे में कभी संशय नहीं था) के बारे में एक बार फिर से सोचने लगा. मुझे नहीं पता की इस कविता को लिखते हुए सुमन जी ने कितना दर्द झेला होगा, लेकिन इस कविता का पाठ करते हुए मुझे एक दर्द हुआ, सचमुच एक दर्द हुआ. मैं बहुत देर तक अवाक् था, इसके बारे में कुछ लिखना चाहता था, लेकिन नहीं लिख सका. यद्यपि, रोज़ाना अख़बारों में, टी.वी. (जो मैं बहुत कम देख पाता हूँ) पर, इंटरनेट पर बलात्कार, छेड़छाड़ आदि की खबरें रहती हैं, लेकिन सच कह रहा हूँ, वे ख़बरें अब उतनी ही संवेदना जगाती हैं जितनी कि कश्मीर में बम विस्फोट या एक राजनेता के भ्रष्टाचार में लिप्त होने की खबर. गुस्सा आता है, क्षोब होता है, कभी कभी शर्मिंदगी होती है कि किस समाज में रह रहे हैं, लेकिन कभी कोई गहन चिंतन-मनन करने की आवश्यकता नहीं समझी जाती, न अपने आस-पास देखने की कोई ज़रूरत महसूस की जाती है कि हम देखें कि अपने आस-पास की औरतों के प्रति हमारा नज़रिया क्या है, न कभी यह सोचने की कोशिश की जाती है कि जिन औरतों के प्रति इस तरह के अपराध किये जाते हैं, उनकी पीड़ा किस प्रकार की होती होगी? कोई पीड़ा होती भी होगी या नहीं? उस लड़की या औरत के माँ-बाप, बहन-भाई पर क्या गुज़रती होगी? सुमन जी की यह कविता उस मर चुकी/ मरती जा रही संवेदना को हौले से नहीं, अपितु झकझोड़ कर जगाती है, और बहुत सारी चीजों पर, समाज की इस पूरी व्यस्था पर एक बार पुनः सोचने के लिए मजबूर करती है.
अब तक इस कविता पर बहुत बहस की जा चुकी है, मैं एक नई बहस को जन्म नहीं देना चाहता परन्तु यह बिलकुल सच है और इस सच को स्वीकार करने में कोई गुरेज़ नहीं होनी चाहिए कि चाहे वह धर्म हो, राजनीति हो, समाज हो, संस्कृति हो सब के सब स्त्रियों के प्रति असीमित हद तक क्रूर हैं. कुछ संस्कृति-प्रेमी अपाला, गार्गी आदि का उदाहरण देना शुरु कर सकते हैं. अगर इतिहास और पुराणों में कुछ सम्मनित स्त्रियों का उल्लेख मिलता है तो इसका अर्थ कत्तई यह नहीं है कि हमारा समाज और हमारा धर्म और हमारी संस्कृति इनके प्रति बहुत सहिष्णु थी या है. और यहाँ मैं सिर्फ़ भारत-वर्ष की स्त्रियों के बारे में नहीं कह रहा हूँ, बल्कि पूरे विश्व की स्त्रियों के बारे में बात कर रहा हूँ. कुछ लोग यूरोप और अमेरिका के बारे में बात कर सकते हैं. मगर मित्रों, वहाँ स्त्रियों को ज़्यादा आज़ादी तो है, लेकिन वही आज़ादी नहीं है जो वहाँ मर्दों को मिली हुई है. सच तो यह है कि हर जगह,
औरत ने जनम दिया मर्दों को
मर्दों ने उसे बाजार दिया
जब जी चाहा मचला-कुचला
जब जी चाहा दुत्कार दिया (साहिर)
कुछ इस कविता के बारे में…यह एक अद्भुत कविता है. कुछ लोग (जैसा कि प्रभात रंजन ने परिचय में लिखा भी है) इसे एक लंबी कविता कहेंगे, मैं इसे एक छोटी काव्य-कथा कहूँगा या एक छोटा काव्यालाप. हिन्दी में कुछ और विधाएँ भी विकसित की जानी चाहिए . अन्य पाठकों के लिए नहीं जानता, मेरे लिए यह कविता इसी लिए सार्थक है कि इसने मुझे अवाक किया, बेचैन किया और कविता की शक्ति पर मेरे विश्वास को और बढ़ा दिया. यह कविता है या ‘बची हुई आत्मा’ का ‘कुचली हुई देह’ के प्रति चीत्कार….
मुझे इस कविता की भाषा और शैली ने भी बहुत प्रभावित किया. शुरुआत में ऐसा लगता है जैसे उर्दू के मशहूर शायर अख्तर-उल-ईमान की कोई नज़्म है. कविता जैसे-जैसे आगे बढती है, पाठक को अपने से बाँधती जाती है.
कोरी चुनरिया-सा
औरत का जीवन
पल भ्रर में दाग लगे
पल भ्रर में खोंच…
इससे आगे की पंक्तियों को पढते हुए मुझे कल ही फेसबुक पर “Save Her Ever-Save the Girl Child” के पेज पर पोस्टेड कुछ पंक्तियाँ याद आ गयीं-
“जैसे ही लड़की
कुछ नया करना चाहती है
अकेली पड़ जाती है..
वर्ना
लोग साथ देते ही हैं
देवी का
सती का
रंडी का”
पंक्तिया और भी हैं जो आकर्षित करती हैं, यथा:
“औरत का प्रेम तो< br /> संशयों पर पलता है
समाज की निगाहों से
संस्कार की जकड़नों से
अहं के भावों से
बचता-टकराता
विश्वास की डाल पकड़
बेल-सा चढ़ता है
(आत्मा से देह तलक)”
“औरत के लिए प्रेम
जीवन की सीप में
स्वाति की बूँद बन
मुक्ति-सा पलता है”
“गुड़िया -सी सजी धजी
गुड़िया -सी चाभी लगी
गुड़िया -सी गुंगी ही
औरत उसे पसन्द
बोलते ही गुड़िया को तोड़ता मरोड़ता वह”
लगता है कुछ ज्यादा लिख गया पर क्या करूँ कि “आत्मा तो बची ही हुई है, प्रश्नों के रूप में.” बधाई सुमन जी, बधाई प्रभात जी!
सुमन जी …….. आपकी रचनाशीलता से मेरा पहला परिचय जे एन यू मे कवि स्म्मेलन मे हुआ था ओर तब से अब तक आपकी कयी रचनाये पडी लेकीन इस कविता ने अन्दर तक झकझोर दिया ..ज़िदगी की वासविकताओ को बेहद गहरायी से उकेरा है…आत्मा फिर भी बची है
कवियत्री सुमन केशरी की यह कविता अंदर से झकझोर देने वाली है, बेशकीमती पंक्तियाँ:
"गुड़िया -सी सजी धजी
गुड़िया -सी चाभी लगी
गुड़िया -सी गुंगी ही
औरत उसे पसन्द
बोलते ही गुड़िया को तोड़ता मरोड़ता वह
आत्मा फिर भी बची रहती
प्रश्नों के रूप में
फन काढ़े नागिन को
पाँवों से कुचलता वह बेइज्जती के
बना छोड़ता उसे बस देह भर
कपड़े-सा बरतकर फेंक देता उसे
गलियों में
पाँवों तले रूँदने को
चिथडे़-सा…"
this is the truth .mind blowing …
bohat achhi aur prabhaavit krne wali kavita hai jo ki sochne per majboor karti hai ki hamesha ek stri k saath he aisa q hota hai ????????
औरत का दर्द औरत ही जानती है
टुकड़ों में जीती है ,टुकड़ों में पलती है
समाज को वह समाज बनाती है
फिर भी समाज ही उसको डसता है .
औरत के लिए प्रेम
जीवन की सीप में
स्वाति की बूँद बन
मुक्ति-सा पलता है
mind blowing…..
आत्मा फिर भी बची है
प्रश्नों के रूप में. stree ka astitv un prashno me hee ujagar ho jaata hai jiske jawab aadhi duniya ke paas nahi hote. suman ji ki samvednsheel lekhan ko salaam.
दिल दहला देने वाली कविता… किसी हादसे के बारे में लिखना कितना यंत्रनादायक होता है… जानता हूँ… सुमन जी ने सचमुच मुझे रुला दिया… बरसों पहले ''आत्महत्या'' सीरिज लिखी थी…वोह याद आ गई…
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