जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

पहला जानकी पुल शशिभूषण द्विवेदी सम्मान लेखिका दिव्या विजय को उनके कहानी संग्रह ‘सगबग मन’ के लिए दिया गया है। इस संग्रह में अलग अलग तरह के परिवेश की अनेक सघन कहानियाँ हैं। लेकिन ‘महानगर की एक रात’ कहानी बहुत अलग तरह की है। भय, शंका से भरपूर यह कहानी एक ऐसे अप्रत्याशित मोड़ की तरफ़ जाती है पढ़ते हुए पाठक जिसका अनुमान भी नहीं लगा सकते। आप भी पढ़िये-

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“तुमने टैक्सी में शेड्स क्यों लगाये हैं? रात में इनकी क्या ज़रुरत है?” झल्लाते हुए अनन्या ने दोनों खिड़कियों से शेड्स हटा डाले. काँच पर काली कोटिंग बैन हो गयी है फिर भी ये लोग…दिन में तो धूप होती है पर रात में क्यों! उसकी नज़र पीछे वाले ग्लास पर पड़ी. कमाल है…यहाँ भी शेड्स. अनन्या हल्का-सा उठ कर उन्हें हटाने की कोशिश करने लगी पर वे मज़बूती से लगे हुए थे.

ड्राईवर ने कहा भी, “मैडम उन्हें रहने दीजिये. वे आसानी से नहीं हटेंगे.”

हटेंगे कैसे नहीं. ज़रूर हटेंगे. सोचते हुए उसने पूरी ताकत लगा दी और उन्हें वहाँ से हटा कर ही दम लिया.

अनन्या ने अपने चेहरे पर चुहचुहा आये पसीने को हाथ से पोंछना चाहा पर पसीना कहाँ था! जनवरी की हाड़तोड़ सर्दी में पसीना एक भ्रम ही था फिर उसे ऐसा क्यों लगा. उसने अपने सीने के बायीं ओर, जहाँ दिल होता है, हाथ रख लिया. हथेली के नीचे फुदकता दिल जैसे हाथ से फिसल जाने को आतुर था.  क्यों, उसे ख़ुद भी नहीं मालूम पर वह डरी हुई थी. उसने समय देखा. बारह बज रहे हैं. ज़्यादा देर नहीं हुई है…महानगर के लिहाज़ से तो बिलकुल नहीं. कितनी बार अपने शहर में वह देर रात लौटी है पर वह अपना शहर था. क्या रास्ते और क्या रिक्शे-ऑटो वाले…सब जाने-पहचाने. कोई भी वक़्त हो उसे डर जैसी कोई बात कभी महसूस नहीं हुई. अपना शहर बरगद की छाँव की तरह होता है जिसके तले सब निरापद लगता है. सड़क का एक-एक पत्थर तक आपकी भाषा बोलता-समझता प्रतीत होता है. वह निःशंक अपने शहर में आती-जाती है.

लेकिन यह शहर…नितांत अपरिचित. पहली बार ऐसा हुआ है कि अपरिचित शहर में वह इस समय अकेली है. शहर जो अभी पिछले दिनों ही कितनी निर्मम घटनाओं से होकर गुज़रा है. इन घटनाओं से दूर-दराज़ बैठी अनगिनत लडकियाँ भी बेतरह प्रभावित हुई हैं. वे सब सहम गयी हैं. अविश्वास और भय अपनी सम्पूर्ण क्रूरता के साथ उनके जीवन में घुल गए हैं. वे निरंतर इस पीड़ा से गुज़र रही हैं कि व्यक्ति होने से पहले से वे एक मादा हैं. मादा..जो नर की इच्छा-पूर्ति का साधन हैं.

वह इस समय अकेले नहीं लौटना नहीं चाहती थी पर वहाँ किस से कहती. क्या होता अगर वे वहीं उसके ऊपर हँस देते. क्या होता जो वे  कह देते कि अब क्या हुआ जेंडर इक्वैलिटी की सारी तक़रीरों का जो एक घंटे की दूरी अकेले तय नहीं की जा रही. उसने ठहाके लगाती उस भीड़ को देखा जिसमें सारे मर्द थे. वही अकेली औरत. ऐसा नहीं कि लोग उसे नोटिस नहीं कर रहे थे. कनखियों से सब उसे देख रहे थे…कुछ लोगों ने आगे बढ़ कर हेलो भी कहा था. और एक-आध ने हाथ मिलाने के बहाने हाथ को दबा कर छोड़ दिया था. वह इन स्पर्शों का अर्थ ख़ूब समझती है. बाहरी आवरण चाक-चौबंद…एक दाग़ तक नहीं. पर सबके मन की उत्सुकता और मौक़ा मिलते ही आगे बढ़ जाने वाली मानसिकता अब उसे समझ आने लगी है. वह जानती है बहुत लोग मन-ही-मन प्रतीक्षा कर रहे होंगे कि वह होटल तक छोड़ने का प्रस्ताव रख दे.

लेकिन जानती ही किसको थी वह! यूँ इतनी देर में बहुत-से चेहरे जाने-पहचाने हो गए थे पर इतनी अनौपचारिकता किसी के साथ न थी कि जाकर होटल तक छोड़ने को कह दे. कौन था जो रात में होटल ले जाने को लड़की का आमंत्रण नहीं समझ लेता. कौन था जो इसे अलग तरीक़े से न लेकर महज़ मदद मान लेता. ऐसा नहीं उसने सोचा नहीं था पर पूरे हॉल में निगाह घुमाने के बाद जो लोग उसे दिखे वे कुछ ड्रिंक्स के बाद बहस करते हुए कनखियों से वहाँ मौजूद स्त्रियों को घूर रहे थे. नहीं, इनके साथ नहीं. यही कौन सुरक्षित लोग हैं. आदमी जब होश खो देता है तो अपने-पराये का भेद ख़त्म हो जाता है. फिर वह तो इनकी अपनी भी नहीं.

पहले अनन्या उतना ही देखती थी जितना दिखाई देता. दुनिया उसके लिए तब अधिक सुन्दर थी. जो कहा जाता वही सच लगता, जो घट रहा होता सच की सीमा उसे वहीं तक लगती. उसे वो झीना पर्दा नहीं दिखाई देता जिसके पीछे सच किसी ठहरे हुए पानी में जमी काई की तरह दूर तक फैला होता. सच इतना विशाल भी हो सकता है यह उसने तब जाना जब वह नौकरी पर जाने लगी. रोज़ गले मिलने वाले लोग पीछे से किस तरह गला दबाने की फ़िराक़ में रहते हैं यह जब पहली बार जाना तब निराश होकर ऑफ़िस से छुट्टी लेकर बैठ गयी थी. तब पापा ने समझाया था कि नौकरी में इन सब बातों से जूझना पड़ता है. फिर देर तक अपनी नौकरी के क़िस्से सुनाते रहे. कब कैसे कहाँ कितनी तिकड़मों से पार पाते हुए अपनी नौकरी की अवधि पूरी की..इसका लेखा-जोखा देते रहे. मस्तिष्क कुछ ग्रहण कर सका, बाक़ी आगे होने वाले अनुभवों पर छोड़ दिया.

धीरे-धीरे उसे आदत हो चली. अब तो वह उन सबसे भी हँस कर मिलती है जिनके बारे में जानती है कि वह उसके बारे में क्या सोचता-कहता है. उसने ख़ुद के चारों ओर ऐसी अदृश्य झिल्ली बना ली है जिसके भीतर आकर कोई बात उसे परेशान नहीं करती. किन बातों को उसका चेतन मन ग्रहण करेगा वह इस बात को लेकर सेलेक्टिव हो चली है. गलाकाट स्पर्धा के माहौल में जीवन बचाए रखने के लिए यह आवश्यक भी है. लेकिन वह बात अलग है. वहाँ जीवन को ख़तरा नहीं रहता. कम-से-कम सीधे-सीधे तो नहीं. लेकिन यहाँ…यहाँ टैक्सी ड्राईवर ने कुछ कर दिया तो. यह सोचकर उसकी देह सिहर गयी. पिछले कुछ दिनों की घटनाओं को देखकर उसके जैसी समझदार और हिम्मती लड़की भी डर से दूर नहीं है. उसे वे मिथक याद आये जिसमें पूरे चाँद की रात इंसान भेड़िये में बदल जाता है और लोगों को अपना शिकार बनाता घूमता है. क्या पुरुष अकेली स्त्री को देखते ही पशु में बदल जाते हैं और हिंसात्मक हो उठते हैं?

डर अजब शै है. इन्सान के भीतर क़तरा-क़तरा घुल कर उसके पूरे वजूद पर फैल जाता है. किसी बात के होने की सम्भावना…हाँ मात्र सम्भावना…व्यक्ति के जीवन को बुरी तरह प्रभावित कर देती है. वह बात न हो तो डर फ़िज़ूल मालूम पड़ता है और अगर वह बात हो जाए तो डर एक यक़ीन की तरह जीवन में गहरे पैठ जाता है. होने न होने के अनुपात में पचास प्रतिशत का अंतर होता है. जितने प्रतिशत उसके न होने की सम्भावना…उतने ही प्रतिशत उसके होने की सम्भावना. लेकिन डर विशुद्ध सौ प्रतिशत होता है…बग़ैर किसी मिलावट के. डर के होते हुए कोई और अहसास छू भी नहीं जाता. निपट निहत्था डर इतना सबल होता है कि अच्छे-अच्छों को मार गिराए.

उसने अपने कपड़ों की ओर देखा. सर से पाँव तक ढँकी हुई थी वह. इस बिज़नेस सूट का चयन उसने जानते-बूझते किया था. यही सोचकर कि वापस लौटते-लौटते देर हो गयी तो! हाँ, सब ठीक है. अपनी ओर से वह किसी को आमंत्रित नहीं कर रही. सोचते हुए उसे क्रोध आया. दुनिया की कौन-सी लड़की इस बात के लिए किसी को आमंत्रण देती होगी. किस बात ने ऐसा सोचने पर मजबूर किया होगा इन पुरुषों को! उनके पूर्वाग्रहों ने, पुरुषत्व के अहंकार ने या स्त्रियों को ऑब्जेक्टिफ़ाय करने की प्रवृत्ति ने. उसने कार का शीशा कुछ नीचे कर दिया. इतना भर कि काँच में एक पतली लकीर दिखने लगी. उस पतली लकीर से आती हुई हवा नश्तर की तरह उसका चेहरा चीरने लगी. ठंड से वह काँप गयी.

“मैडम, खिड़की बंद कर दीजिये.” टैक्सी ड्राईवर की आवाज़ आई.

“क्यों?” अनन्या अपनी आवाज़ जबरन कड़क कर बोली.

“मैडम, ठंड भीतर आ रही है.”

ड्राईवर की बात ठीक थी. लेकिन उसने अनसुना कर दिया. अचानक चिल्लाने की ज़रुरत पड़ गयी तो आवाज़ बाहर जा सकेगी. वह पतली लकीर डूबते को तिनके का सहारा थी. काँच पूरी तरह कोहरे से सना था. उसने धीरे से उस पर उँगलियों की छाप बना दी. पहले एक जगह, फिर दूसरी जगह. अब काँच पर जगह-जगह उसके हाथों की अस्पष्ट छाप नज़र आ रही थी. कोहरे के उफान से वह जैसे ही धुंधली पड़ने को होती अनन्या फिर आड़ी-तिरछी रेखाएँ खींच देतीं.

उसकी नज़र बैक व्यू मिरर पर गयी. ड्राईवर उसे ही देख रहा था. अनन्या ने अपना स्टोल गर्दन में कस कर लपेट लिया. वह उसे क्यों देख रहा है? उसकी आँखें उसे अजीब लगीं…बहुत अजीब. लाल डोरों से अटी हुई. क्या वह शराब पिए है? उसने गहरी साँस ली. भीतर की हवा नशीली थी लेकिन उसके अपने परफ़्यूम में सनी हुई. शराब की गंध का ओर-छोर वह नहीं पा सकी थी. वह सोच में डूबी थी कि ड्राईवर की आवाज़ फिर आई,

“मैडम खिड़की बंद कर लीजिये प्लीज़.” ड्राईवर ने स्वेटर के नाम पर पतली-सी स्वेटशर्ट पहनी थी. उसकी आवाज़ में कँपकँपी भर गयी थी. ख़ाली सड़क पर अस्सी की स्पीड से भागती गाड़ी और जनवरी महीने की कड़ाके की ठंड. वह खिड़की बंद करने को थी कि उसकी नज़र एक बार फिर ड्राईवर पर गयी. वह मुस्कुरा रहा था. हो सकता है यह उसके प्रोफ़ेशन का हिस्सा हो लेकिन उसे मुस्कुराते देख अनन्या उखड़ गयी. आवाज़ में तेज़ी लाकर बोली,

“खिड़की बंद नहीं होगी. मेरा दम घुटता है बंद गाड़ी में.”

इसके बाद ड्राईवर कुछ नहीं बोला. उसकी मुस्कराहट भी खट से बुझ गयी जैसे रिमोट कंट्रोल से संचालित हो. अब वह चुपचाप गाड़ी चला रहा था.

कार निर्विकार रूप से भाग रही थी. अनन्या के लिए रास्ता उलझनों से भर गया था. कितनी देर का रास्ता और बचा होगा? इतनी देर हो गयी है पर सफ़र पूरा होता नहीं दिख रहा. अनन्या पसोपेश में थी कि ड्राईवर से पूछे या नहीं? कैसे मुँह फुलाकर गाड़ी चला रहा है. जाने जवाब देगा भी या नहीं. वह धीरे से मिनमिनाई,

“कितनी दूर और है?”

ड्राईवर ने सुना नहीं या सुन कर भी चुप रह गया. यह दो बातें थीं और दोनों का अलग अर्थ था. अनन्या का मस्तिष्क अब अधिक सक्रिय हो चला था. मान लो उसने सुन ही लिया तो जवाब क्यों नहीं दिया. हो सकता है उसके खिड़की खोलने से तन्नाया हुआ हो या…या वह बताना ही न चाहता हो. न बताने के भी बहुत कारण हो सकते थे जैसे वह वहाँ जा ही न रहा हो जहाँ उसे जाना है. यह ख़याल उसे परेशान करने के लिए बहुत था. उसे मालूम करना होगा कि वह सही रास्ते पर है या नहीं.

वह सड़क को देखते हुए कोई असंभव पहचान खोज ही रही थी कि उसे झट से याद आया. उसने अपने ऊपर हल्का-सा क्रोध भी आया कि या विचार उसे पहले क्यों नहीं आया. उसने मोबाइल निकाला और गूगल मैप्स में अपना डेस्टिनेशन डाल दिया. उफ़, अभी आधे घंटे का रास्ता और बचा है. वह एग्ज़िट करने को थी कि उसकी नज़र सामने मैप पर भागती गाड़ी पर पड़ी. यह क्या! जो रास्ता मैप दिखा रहा है यह उस से क्यों उतर रहा है. मैप में तो दस मिनट सीधे चलने के बाद बाँए मुड़ना है.

“ऐ सुनो, यह किस रास्ते से लिए जा रहे हो? यह रास्ता तो नहीं है.”

“मैडम, दूसरे रास्ते पर काम चल रहा है.” कहते हुए उसने गाड़ी की स्पीड बढ़ा दी.

उसने मोबाइल की ओर देखा. मैप ख़ुद को री-एडजस्ट कर रहा था. “गो स्ट्रेट फॉर फाइव हंड्रेड मीटर देन टर्न राईट.” आवाज़ गूँजी तो अनन्या हड़बड़ा गयी. ड्राईवर ने सुना तो उसे मालूम हो जायेगा कि वह रास्तों से अनजान है और डरी हुई है. उसने झट आवाज़ कम की.

“गूगल मैप चला रखा है मैडम आपने.” ड्राईवर आवाज़ सुन चुका था. अनन्या मोबाइल की आवाज़ कम कर चुपचाप बाहर देखती रही. “मैडम इस गूगल से ज़्यादा रास्ते हमें याद रहते हैं. अपना शहर है. यह तो फिर भी बहुत बार ग़लत जगह पहुँचा देता है लेकिन मजाल है जो हमसे कभी ग़लती हो जाए.” वह बोलता जा रहा था लेकिन अनन्या को इस बात में बिलकुल दिलचस्पी नहीं थी. वह जल्द से जल्द होटल पहुँच जाना चाहती थी. वह कभी बाहर, कभी गूगल मैप पर कभी कनखियों से ड्राईवर पर नज़र रखे हुई थी. ड्राईवर ने म्यूज़िक की आवाज़ बढ़ा दी.

‘वक़्त है कम और लम्बा सफ़र है, तू रफ़्तार बढ़ा दे, मंज़िल पर हमें पहुँचा दे….’ किसी भूले हुए ज़माने का गीत बज रहा था. द्विअर्थी बोल गाड़ी का सन्नाटा तोड़ रहे थे. गाने के अश्लील बोलों ने उसे खिजा दिया. बरसों पहले उसने यह फिल्म टीवी पर देखी थी. अनिल कपूर और जूही चावला बेतुके गाने पर भद्दे तरीके से थिरक रहे थे. पापा ने अचानक आकर टीवी बंद कर दिया था. वह ग़ुस्से में थे. आज वही ग़ुस्सा उसके चेहरे पर परछाईं बन कर तैर रहा था.

“म्यूज़िक बंद करो .” उसके क्रोध को शायद ड्राईवर भाँप गया था. इसलिए बिना कुछ कहे उसने गाना बंद कर दिया.

अनन्या ने खिड़की से बाहर झाँक कर देखा. मुख्य सड़क को गाड़ी छोड़ चुकी थी. दूसरी कारें जो वहाँ उसे सुरक्षा देती लग रही थीं, वे भी इस सुनसान सड़क पर मौजूद नहीं थीं. लैंप पोस्ट थे पर या तो उनके लट्टू ग़ायब थे या इस इलाके में बिजली नहीं थी. दूर तक अँधेरा पसरा पड़ा था. वहाँ मौजूद घर भी अँधेरे में सिमटे हुए थे. नाईट बल्ब की क्षीण रोशनी की आशा भी किसी मकान से नहीं झाँक रही थी. न हो तो कहीं मोमबत्ती ही जल रही होगी. वह आँखें फाड़े पर्दों के पार मोमबत्ती की हिलती-डुलती लौ खोजने लगी पर उसे सफलता प्राप्त नहीं हुई. इन दिनों कौन मोमबत्ती रखता है. सब अपने मोबाइल की फ़्लैशलाइट पर निर्भर हैं. यूँ कोई रोशनी दिख भी जाती तो क्या होता. रोशनियाँ आवाज़ नहीं सुनतीं. लेकिन रोशनी संबल होती है. सूक्ष्म-सी रोशनी भी अँधेरे की विशाल भयावहता तोड़ने में सक्षम होती है. एक लौ का हाथ थामे लम्बा सफ़र तय किया जा सकता है. लेकिन नहीं, यहाँ कुछ नहीं था.

उसे अपनी लोकेशन घर वालों और दोस्तों को भेज देनी चाहिए. लेकिन वे लोग तो इतनी दूर, दूसरे शहर में हैं. कोई मुसीबत आन पड़ी तो वे लोग भला क्या कर सकेंगे. नहीं, भेजना ही सही होगा. कम-से-कम उन्हें मालूम तो होगा मैं कहाँ हूँ. उसने मोबाइल उठाया लेकिन मोबाइल में नेटवर्क नहीं था. इस नेटवर्क को भी अभी जाना था या यहाँ नेटवर्क रहता ही नहीं. सोचते हुए अनन्या की घबराहट और बढ़ गयी.

अब उसे सचमुच हवा की ज़रुरत महसूस हुई. उसने खिड़की का काँच नीचे खिसकाना चाहा पर शायद ड्राईवर लॉक लगा चुका था. कई बार बटन दबाने पर भी काँच नीचे नहीं हुआ. उसने लॉक क्यों किया होगा? उसने ड्राईवर को देखा. ड्राईवर का एक हाथ गियर पर था और एक हाथ से वह दक्षता से स्टीयरिंग सँभाले हुआ था. उसके बाँए हाथ में स्टील का कड़ा था जो स्वेट शर्ट की आस्तीन से झाँक रहा था. वह कोई धुन गुनगुना रहा था. उसने धुन पहचानने की कोशिश की लेकिन सफल नहीं हुई. क्या ड्राईवर को कहना चाहिए कि लॉक खोल दे. नहीं ,अब वह ड्राईवर से कुछ नहीं कहेगी. ज़रुरत पड़ने पर सीधे काँच तोड़ देगी. पर किस से? उसने कार में इधर-उधर नज़र घुमाई. कोई पैनी-नुकीली चीज़ नहीं दिखाई दी. सीट की जेब में हाथ दिया. नहीं, इसमें कुछ नहीं था. दूसरी सीट की जेब में हाथ डाला तो वहाँ कुछ था. एक छोटा बॉक्स. क्या हो सकता है? क्या टूल-बॉक्स? सोचते हुए उसने बॉक्स बाहर निकाला. चमड़े का छोटा-सा बॉक्स. उसने ठहर कर ड्राईवर को देखने की कोशिश की. वह उसे देख तो नहीं रहा? नहीं, उसकी नज़रें सामने थीं. उसे जल्दी से इसे खोल कर देख लेना चाहिए. क्या पता कुछ काम का मिल जाए. उसने मोबाइल के स्क्रीन की रोशनी में धीरे से बॉक्स खोला तो देख कर झटका खा गयी. उसकी नसें झनझना उठीं. अन्दर कॉंडम के पैकेट थे. यह कितनी असंगत बात थी. पैसेंजर सीट के आगे कॉंडम! अपना निजी सामान तो ड्राईवर आगे रखता है. कहीं किसी और सवारी का तो नहीं? हो भी सकता है और नहीं भी. वह फिर होने, न होने के दोराहे पर खड़ी थी.

उसका मन हुआ अभी टैक्सी से उतर जाए लेकिन बाहर का सुनसान देखकर वह ठहर गयी. कार की हेडलाइट की रोशनी छोड़कर अब भी वहाँ अँधेरा था. दूर कहीं कुत्ते झगड़ रहे थे. तभी अचानक एक बाइक हॉर्न देते हुए कार की बग़ल से गुज़र गई. वह कुछ सोच पाती इस से पहले बाइक पलट कर वापस आई, टैक्सी के पास आकर धीमी हुई और बाइक सवार फ़िकरा कस कर तेज़ी से आगे बढ़ गए. ड्राईवर ने एक क्षण उसे देखा और पतली लकीर पर काँच चढ़ा दिया.

“मैडम, अभी देखा न आपने.” ड्राईवर ने सफ़ाई देते हुए कहा.

अनन्या ने कुछ नहीं कहा पर अन्दर से वह हिल गयी थी. अभी यहाँ उतरना किसी भी तरह सुरक्षित नहीं है. उसने अपना पर्स टटोला. एक नेलकटर जिसमें छोटा-सा चाकू भी था उसे नज़र आया. उसने चाकू को बाहर निकाल कर नेलकटर अपनी हथेली में भींच लिया. आमना-सामना करने की नौबत आ गयी तो इसकी बदौलत कुछ मिनट तो मिलेंगे उसे. कोई हथियार छोटा या बड़ा नहीं होता. असल बात है कि ज़रुरत के वक़्त कितनी अक़्लमंदी से उसका इस्तेमाल होता है. वह ख़ुद को हिम्मत बँधा रही थी.

अचानक टैक्सी की रफ़्तार कम हुई. उसके आगे हज़ारों डर तैर गए. क्या हुआ अगर इसके यार-दोस्त अँधेरे से निकल कर गाड़ी में आ बैठे या उसी को दबोच कर कहीं ले गए. कहीं बाइक सवार भी तो मिले हुए नहीं. अख़बार में रोज़ छपने वाली ख़बरें उसे एक-एक कर याद आने लगीं. किसी में टैक्सी वाला सुनसान रास्ते पर ले गया तो किसी में चलती गाड़ी में ही…

उसका अकेले आना ही ग़लती था. नहीं आना चाहिए था उसे अकेले.  उसके पढ़-लिख जाने से लोगों की सोच तो नहीं बदल सकती. लोग जिस सोच के ग़ुलाम हैं उसका ख़ामियाज़ा आज तक औरतों को भुगतना पड़ता है. उसने अपने पर्स में पड़ा पेपर स्प्रे टटोला. पिछले साल ऑर्डर किया था. तब से हमेशा साथ रखती है पर इस्तेमाल करने की नौबत अभी तक नहीं आई. लेकिन आज ज़रा भी कुछ अजीब लगा तो वह इसके इस्तेमाल में हिचकेगी नहीं. सोचते हुए वह एक हाथ से पेपर स्प्रे घुमाती रही और एक हाथ में नेल कटर थामे रही. उसने तय किया अगली बार अकेले सफ़र करते हुए एक बड़ा चाकू साथ रखेगी. टैक्सी अब और धीरे चल रही थी.

“क्या हुआ?” उसने अपने डर पर काबू रख पूछा. उसकी आवाज़ में न चाहते हुए भी अतिरिक्त सतर्कता थी.

“कुछ नहीं मैडम. आगे मोड़ है. यह मोड़ एक्सीडेंट के लिए बहुत बदनाम है. एक बार मेरा भी एक्सीडेंट होते-होते बचा था. तब से मैं यहाँ बहुत सावधान रहता हूँ.”

कार दाएँ मुड़ चुकी थी. “फिर तो सीधे-सीधे ही चलना चाहिए था.”

“उस रास्ते से तो आप अगले दो घंटे तक कहीं नहीं पहुँच पाती. आधी सड़क पर काम चल रहा है. बाक़ी आधी सड़क पर ट्रैफ़िक का इतना बुरा हाल होता है कि पैदल आदमी का खिसकना मुश्किल फिर गाड़ियों की बात तो भूल ही जाइए.” तभी उसके फ़ोन की घंटी घनघना उठी.

“म आउदै छु. एक घंटा मा.” वह अब कुछ और चौकन्नी हो उठी थी.

उधर से कुछ कहा गया था. जिसके जवाब में ड्राईवर ने कहा, “म देख्छु. ठीक छ.” फोन रख दिया गया था.

कार में अचानक शांति छा गयी थी. “नेपाल से हो?” अनन्या ने यूँ ही पूछ लिया. डर से निजात पाने को या डर को कोई आधार देने को..वह ख़ुद भी बता पाने में असमर्थ होती.

“न, न. मैं नेपाल से नहीं हूँ. मेरी पत्नी है न..वो है वहाँ की. उसी के साथ थोड़ी बहुत नेपाली बोल लेता हूँ. उसे अच्छा लगता है.” अंतिम वाक्य बोलते समय ड्राईवर की आवाज़ में कामना की छाया उतर आई या अनन्या को ऐसा महसूस हुआ.

“उसे तेज़ बुखार है. बिटिया अलग भूख से रोये चली जा रही है. बस यही पूछ रही थी कि कितना समय लगेगा.” कह कर उसने बैक व्यू मिरर में अनन्या को देखने की कोशिश की. “वैसे मेरा घर पास ही में है. दो गली छोड़कर. आप कहें तो भाग कर ब्रेड का पैकेट पकड़ा आऊँ? आप गाड़ी में बैठी रहिएगा” पूछते हुए वह झिझक रहा था पर फिर भी पूछना शायद ज़रूरी रहा होगा. “घर में कोई और है नहीं. बच्ची को छोड़कर पत्नी कहीं जा नहीं सकती.”

नया पैंतरा.. कहीं इसीलिए तो यह इस रास्ते से नहीं ले आया. किसी बहाने गाड़ी रोको और…

वह कुछ नहीं बोली. उसने भी दोबारा नहीं पूछा. वह गाड़ी चलाता रहा लेकिन इस बार उसकी गति बढ़ गयी थी. वह चाहती थी कार की गति कम हो जाए पर वह अब उस से कोई संवाद नहीं करना चाहती थी. सीधे होटल पहुँचा दे…सही-सलामत. उसने मोबाइल में डायल स्क्रीन पर सौ टाइप किया. अब ज़रुरत होते ही सिर्फ़ डायल करना होगा.

तभी अचानक गाड़ी एक तेज़ झटके के साथ रुक गयी.

अनन्या का सर किसी नुकीली चीज़ से टकराया. दरवाज़े के हैंडल से या पता नहीं किस से….हाथ में कस कर थामी गयी चीज़ें गाड़ी के किस अँधेरे कोने में बिला गयीं कहना मुश्किल था. दर्द की एक लहर उसके सर से होते हुए शरीर की ओर बढ़ रही थी. उसने अपना सर दोनों हाथों में थाम लिया पर दर्द था कि अपनी पूरी आक्रामकता के साथ उस पर हावी हुए जा रहा था. उसने किसी तरह नज़रें उठाकर देखा. यह रास्ता पूरी तरह सुनसान था. न कोई आदमी, न आदमी की छाया. एक लम्बी सड़क जिसके दोनों ओर कभी न ख़त्म होने वाले पेड़ों का झुंड. ड्राईवर बेल्ट हटा रहा था. उसे चोट नहीं लगी थी. अब कहीं…

उसे पुलिस को फ़ोन करना ही होगा. मोबाइल उठाने के लिए उसने अपना हाथ बढ़ाया तो देखा उसके दोनों हाथ चिपचिपा गए थे. ख़ून उसके सर से होते हुए हाथों पर बह आया था. ख़ून की गंध ने उसके दिमाग को झिंझोड़ कर रख दिया. अब क्या होगा इस बात का डर बहते हुए ख़ून के साथ मिल गया था. उधर से ड्राईवर की आवाज़ आई,

“मैडम गाड़ी की रफ़्तार तेज़ थी कि अचानक गाय सामने आ गयी. आपको तो पता है यहाँ जानवर किस तरह खुले घुमते हैं. ब्रेक लगाना पड़ा. आपको चोट तो नहीं आई.” वह शायद उसके जवाब की प्रतीक्षा कर रहा था पर दर्द, डर, गुस्से और थकन से उसका शरीर पस्त हो चला था. वह चाहते हुए भी कुछ नहीं बोल पायी. ड्राईवर दरवाज़ा खोल पीछे आया. उसकी हालत देखकर उसने कुछ कहा जो अनन्या समझ नहीं पायी. वह आगे जाकर पानी की बोतल लाया और उसके मुँह से लगा दी. कुछ पानी पिया गया, कुछ बाहर गिर कर उसके कपड़ों को भिगो गया. अब न उसके पास चाकू था, न पेपर स्प्रे, न मोबाइल, न ताकत. वह पूरी तरह से अशक्त पीछे की सीट पर पड़ी थी.

“अरे, आपके सर से तो ख़ून बह रहा है.” एक आवाज़ दूर से आई. “मैडम ऐसा करिए, आप थोड़ी देर लेट जाइए.” कहते हुए उसने आहिस्ता से उसे पीछे की सीट पर लिटा दिया था. क्या ऐसा करते हुए उसने अनन्या की बाँहों पर अतिरिक्त दबाव दिया था. सुन्न होते उसके दिमाग का कोई हिस्सा अतिरिक्त रूप से सतर्क हो उठा था. वह लेटना नहीं चाहती थी. “आप कहें तो आपको अस्पताल ले चलूँ या आपके घर से किसी को बुला दूँ? मोबाइल दीजिये अपना.”

उसे इस आदमी के साथ कहीं नहीं जाना था. वह उसे धक्का देना चाहती थी, चिल्लाना चाहती थी पर न उसके हाथ-पाँव काम कर रहे थे न आवाज़.

उसकी चेतना खोने को थी कि उसने देखा ड्राईवर उसके ऊपर झुक गया है. मोबाइल लेने को या शायद….

आगे सब अंधकार में डूबा था.

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उसकी आँख खुली तो वह अस्पताल के बेड पर थी…तारों के जंजाल से घिरी हुई. हाथ में ड्रिप लगी थी. उसने सर हिलाया तो सर में दर्द महसूस हुआ. उसने बिस्तर के पास लगी घंटी बजाई. नर्स भागते हुए आई. उसे होश में देखकर, मुस्कुराते हुए पूछा,

“हाउ आर यू नाउ यंग लेडी?”

“सर में थोड़ा दर्द है.” अनन्या ने सर को फिर हल्का-सा हिलाकर देखा.

“हाँ, वह अभी रहेगा. पेन किलर ड्रिप में डाल दिए गए हैं. यू विल बी फ़ाइन.” नर्स ने उसका गाल थपथपाया.

“सिस्टर, कोई चिंता की बात तो नहीं है?” वह किसी तरह यही बोल पायी जबकि वह पूछना कुछ और चाहती थी.

“नहीं, नहीं. चोट लगने के बाद आप बेहोश हो गयी थीं इसलिए सीटी स्कैन हुआ. सब नॉर्मल है. डोंट वरी.” वह उसकी पल्स रेट चेक कर रही थी, “बाक़ी बातें डॉक्टर से पूछ लीजियेगा. ही विल बी अराइविंग सून. तब तक आप आराम करिए.”

 “और हाँ, आपके घर भी इन्फ़ॉर्म कर दिया गया है.” उसका मोबाइल उसे पकड़ाते हुए नर्स ने कहा, “आप बात करना चाहें तो कर लीजिये.”

“आपका बाक़ी सामान यहाँ रखा है.” मेज़ पर इशारा करते हुए नर्स बोली.  अनन्या ने गर्दन घुमा कर देखा. चाकू, पेपर स्प्रे, पर्स सब रखा था. कुछ भी मिसिंग नहीं था. कल रात की सारी घटनाएँ एक-एक कर उसे याद आयीं.

“कल टैक्सी वाला आपको यहाँ छोड़ गया था. जब तक आपके टेस्ट नहीं हो गए यहीं बना रहा.” नर्स ड्रिप की स्पीड एडजस्ट करते हुए कह रही थी. सुनकर वह चौंकी. उसके घर पर तो उसकी पत्नी और बच्ची भूखे थे.

“रात की ड्यूटी पर मैं ही थी. बेचारा बहुत चिंतित था. ख़ुद को ज़िम्मेदार मान रहा था.” नर्स जैसे उसकी पैरवी कर रही थी.

अनन्या चुप थी. क्या कहती! वह शायद भला आदमी था. उसने बिला वजह उस पर शक़ किया. माना दुनिया में अपराधी होते हैं पर सभी तो उस श्रेणी में नहीं आते. क्या कल वह एक निरपराध व्यक्ति को अपराधी सिद्ध करने पर तुली हुई थी? कहीं ड्राईवर भाँप तो नहीं गया था कि वह उसके बारे में क्या सोच रही है. वह अचानक शर्मिंदगी के अहसास में डूब चली. कहीं उसने उसकी शंका को सूँघ लिया होगा तो उसके बारे में क्या सोचता होगा. बावजूद इसके  बीमार पत्नी और भूखी बच्ची को छोड़कर वह उसके साथ बना रहा. उसकी बच्ची ठीक तो होगी? उसे अपना आप छोटा लगने लगा. अपराध-बोध उसे टीसने लगा.

नर्स फिर आई और उसे दो गोलियाँ निगलवा कर, आराम करने की ताक़ीद कर चली गयी.

पर अब उसे आराम कहाँ. कल एक घंटे में उसने ख़ुद को ही नहीं शायद ड्राईवर को भी परेशान कर दिया था.  बार-बार खिड़की बंद करने का उसका अनुरोध अनन्या को याद आया. उस से ग़लती तो नहीं हो गयी. क्या उसे फ़ोन कर शुक्रिया कह देना चाहिए? लास्ट डायल में उसका नंबर होगा. कल रात टैक्सी में बैठने से पहले आखिरी फ़ोन उसे ही किया था पर फ़ोन तो बंद था. शायद बैटरी ख़त्म हो गयी. उसने बैग में से अपना पावर बैंक निकाला और मोबाइल प्लग इन किया. विचारों की इस रेलमपेल में नींद उस से कोसों दूर थी. अनन्या ने पास पड़ा रिमोट उठाया और टीवी ऑन कर लिया.  टीवी पर ब्रेकिंग न्यूज़ चमक रही थी. कल रात शहर में दो बलात्कार. देखते ही अनन्या पसीने में नहा गयी.

नहीं, शिकारियों का कोई चेहरा नहीं होता.

उसने तुरंत फ़ोन ऑन किया तो बैटरी अस्सी प्रतिशत थी. देखकर उसे झटका लगा. बैटरी तो है फिर फ़ोन कैसे बंद हुआ? कहीं ड्राईवर ने जान बूझकर तो बंद नहीं किया होगा! फ़ोन बंद था तो घर का नंबर कहाँ से लिया? हजारों प्रश्न उसके दिमाग को मथने लगे.

उसका भय अपेक्षित है या निराधार . किस से पूछे वह, क्या करे?

नर्स भीतर आई तो सहसा ही पूछ उठी,

“सिस्टर, मेरे घर का नंबर कहाँ से लिया था आपने? मेरे मोबाइल से?”

“नहीं, आपके वॉलेट में आपके हज़बैंड का कार्ड था. वहीं से लिया.” क्षण भर रुकी फिर कुछ सोचते हुए बोली, “आपका मोबाइल काम नहीं कर रहा था. शायद बैटरी नहीं थी.”

“फ़ोन आपने किया या ड्राईवर ने?”

“ड्राईवर ने ही किया था. फिर आपके पति की बात मुझसे करवाई थी.”

“ओह अच्छा.”

“क्यों, कोई प्रॉब्लम है?

“नहीं, ऐसे ही पूछा.”

क्या नर्स से इस बारे में पूछे या ख़ुद देखे कि उसके शरीर पर कोई निशान तो नहीं? पर वह तो बेहोश थी. उसने कुछ किया भी होगा तो जोर-ज़बरदस्ती का निशान कहाँ से होगा?

इन्हीं सब चिंताओं में डूबी वह नहीं देख पायी कब सामने उसकी माँ और सुहास आकर खड़े हो गए. उसे तब मालूम हुआ जब माँ ने उसका सर सहलाया और सुहास ने प्यार से उसका हाथ थाम लिया.

दोनों में से किसी ने नहीं कहा कि देर रात तक बाहर क्यों थी. किसी ने यह भी नहीं पूछा कि अनजान शहर में इतनी रात तक बाहर रहने का औचित्य क्या था. बस आये और प्यार से उसे बाँहों में भर लिया. घर के सब लोग उस पर कितना विश्वास करते हैं, उसके निर्णयों का मान रखते हैं. वे जानते हैं कि अगर उसने उस समय बाहर रहना चुना था तो यह आवश्यक रहा होगा. उसने उन दोनों को देखा. उनके चेहरे पर उसके लिए चिंता की लकीरें हैं. नहीं, वह इन्हें और परेशान नहीं कर सकती. फिर वह ख़ुद भी नहीं जानती कि सच क्या है.

“अनन्या..”

सुहास का कहा हुआ एक शब्द उसे सुकून दे गया. कितना प्यार करता है यह लड़का उसे. चार साल की मुहब्बत के बाद कुछ महीने पहले दोनों ने शादी की है. वह तो शादी करना ही नहीं चाहती थी. उसे लगता था शादी उसके वर्क स्टाइल को सूट नहीं करती. सुहास ने उसे समझाया कि शादी स्कूल के टाइम टेबल जैसी नहीं होती कि हमें उसे फ़ॉलो करना ही पड़े. हम शादी के मुताबिक़ नहीं ढलेंगे बल्कि शादी को हमारे हिसाब से ढलना होगा. और हुआ भी यही. सुहास में कोई बदलाव नहीं आया. उन दोनों की प्राथमिकता उनका काम और वे दोनों. एक-दूसरे से प्रेम के अलावा कोई उम्मीद नहीं. दोनों एक-दूसरे का बहुत ख़याल रखते हैं. अनन्या की कई सहेलियाँ या तो नौकरी छोड़कर बैठ गयी हैं या घर-बाहर का काम सँभालते-सँभालते स्ट्रेस में आ गयी हैं. वहीं अनन्या का लाइफ़ स्टाइल ज़रा भी नहीं बदला. शहर से बाहर अक्सर जाना पड़ता है. ऑफ़िस से आने में भी अक्सर देरी हो जाती है. वापस लौटने पर हमेशा सुहास का मुस्कुराता चेहरा ही मिला है.

माँ खिड़की के परदे हटाने गयी तो सुहास ने नज़र बचाकर उसे चूम लिया.

उसकी शरारत पर वह मुस्कुराये बिना न रह सकी.

माँ ने दोनों को देख लिया था. उन्होंने मन ही मन दोनों के लिए दुआ पढ़ी और आकर अनन्या के पास बैठ गयी.

“माँ, आप बैठिये. मैं पापा को लेकर आता हूँ.”

“पापा भी आये हैं?” अनन्या ने महसूस किया कि उसका दर्द अचानक ख़त्म हो गया है.

“हाँ, आये हैं. बाहर डॉक्टर से बात कर रहे हैं. कल से बहुत चिंतित हैं.”

“हाँ सच, चिंता में तो हम सब ही पड़ गए थे. वो तो भला हो टैक्सी ड्राईवर का जिसने तुम्हें यहाँ पहुँचा दिया और हमें फ़ोन कर दिया.”

ड्राईवर का ज़िक्र आते ही अनन्या फिर सोच में डूब गयी थी. वह अच्छा आदमी है, सब कह रहे हैं. लेकिन क्या इतना अच्छा आदमी है कि रात के बियाबान में किसी लड़की का फ़ायदा ना उठाये.

डॉक्टर के हिसाब से सब ठीक था. वह सफ़र कर सकती थी. अनन्या भी अब घर जाना चाहती थी. शाम तक वे सब घर थे. तीन-चार  दिन के आराम के बाद अनन्या ने ऑफ़िस जाना शुरू कर दिया. लेकिन जो बात अनन्या के दिमाग़ से नहीं निकली वह यह थी कि उस रात उसके साथ कुछ हुआ या नहीं. वह बार-बार उस रात के वाक़ये को दिमाग में रिवाइंड कर देखती. कहाँ किस बात का क्या अर्थ निकल रहा है वह पोस्टमार्टम करती. एक-एक बात को कई प्रकार से परखती पर किसी निष्कर्ष तक वह नहीं पहुँच पाती. आईने में हर कोण से वह अपने शरीर को परख चुकी थी. कोई चोट, कोई निशान उसे नहीं मिला था. अजीब मनःस्थिति में वह जी वही थी. अपने हर अंग को छूकर वह देख चुकी थी पर कोई वरदान तो प्राप्त नहीं था उसे..कि उसके अनजाने जो घटा वह भी उसे मालूम हो जाए.

वो अक्सर ऐप पर जाती और उस ड्राईवर की रेटिंग देखती. पूरे पाँच सितारे. उसकी तस्वीर बड़ी कर देखती. हँसता हुआ उसका चेहरा किसी बलात्कारी का चेहरा नहीं लगता था. वह दुनिया भर के बलात्कारियों को गूगल पर सर्च करने लगी. उनके चेहरों का मिलान आम लोगों से कर देखती कि क्या वे कहीं से अलग लगते हैं. उनकी आदतों पर उसने लगभग रिसर्च ही कर डाली थी. ड्राईवर का नंबर कई बार निकाल कर देखती लेकिन कभी मिला नहीं पायी.

उसने अपने आप से कई बार सवाल किया कि क्या यह बात उसके लिए इतना मायने रखती है? अगर हाँ तो क्यों? क्या वह भी शरीर को पवित्रता का परिचायक मानती है. न, वह ऐसा तो नहीं मानती. क्या उस रात वह बलात्कार से डर रही थी या बलात्कार के दौरान हो सकने वाली हिंसा से? यह प्रश्न उसने जब जब ख़ुद से पूछा उसका जवाब उसे हर बार नैनोसेकंड से भी कम में मिला. बलात्कार से ज़्यादा वह हिंसा उसे डराती है. हाँ, वह अपमान भी जो जबरन उसकी इच्छा के विरुद्ध किसी के द्वारा उसकी देह से खेलने पर होता है. लेकिन यहाँ न हिंसा थी, न उसकी जानकारी में अपमान हुआ था फिर वह उस रात को अपनी चेतना से विस्मृत क्यों नहीं कर पा रही. वह पागल तो नहीं हो गयी है?

वह रात इस सीमा तक उस पर हावी हो गयी थी कि उसने रात को ऑफ़िस में रुकना बिलकुल बंद कर दिया. कभी इमरजेंसी होती तो पहले ही सुहास को बता देती कि आज रात लेने आना है. सुहास जो उसके आत्म-निर्भर होने पर बहुत प्रसन्न रहता था, इस अचानक आये बदलाव का कारण नहीं जान पाया. हँसते हुए एक-दो बार इस बात को लक्षित भी किया उसने,

“क्यों मेरी झाँसी की रानी..हुआ क्या है तुम्हें? इन दिनों अकेले नहीं आती हो? रात को ऑफ़िस में रहना भी कम कर दिया है?”

उत्तर में अनन्या पीले पड़े चेहरे को छिपा कर कह देती, “क्यों, मेरा घर पर रहना खटकने लगा है?” जिस पर दोनों हँस देते.

क्या वह सुहास को बता दे? लेकिन वह ख़ुद कुछ नहीं जानती तो सुहास को क्या बताएगी. नहीं-नहीं, कुछ नहीं किया होगा ड्राईवर ने. ऐसा करना ही होता तो अस्पताल क्यों ले जाता वह उसे. या अपने अपराध को ढँकने के लिए तो नहीं ले गया वह उसे अस्पताल! किसी बेहोश स्त्री के साथ…नहीं-नहीं. वह शायद बिना किसी बात के फ़ोबिक हो रही है. अब वह इस बारे में नहीं सोचेगी. उसे अब अपने काम पर ध्यान देना चाहिए. इन सब बातों में फँसकर वह पीछे रह जायेगी.

काम में मन लगाने की कोशिश की लेकिन नियत तारीख़ पर पीरियड्स नहीं आये तो मन में फिर खलबली मच गयी. वह और सुहास तो हमेशा प्रोटेक्शन इस्तेमाल करते हैं…प्रेगनेंसी नहीं हो सकती. प्रेगनेंसी किट लाकर टेस्ट किया तो टेस्ट नेगेटिव रहा. पीरियड्स तो हमेशा रेगुलर रहे हैं…फिर क्या कारण हो सकता है? कुछ दिन और इंतज़ार के बाद भी जब पीरियड्स नहीं आये तो डॉक्टर के पास जाना ही उचित लगा उसे.

गर्भवती होने की आशंका डॉक्टर पहले ही दूर कर चुकी थी. सारे लक्षण सुन-समझकर उस ने कहा कि कभी-कभी स्ट्रेस की वजह से साइकिल गड़बड़ा जाती है. चिंता वाली कोई बात नहीं है. वह दवाई लिख देगी. अनन्या असमंजस में थी कि जब यहाँ तक आ ही गयी है तो डॉक्टर से ही क्यों न पूछ ले. सारी बातें साफ़ हो जायेंगीं.

“डॉक्टर आपसे कुछ पूछना है.” वह झिझकते हुए बोली.

“हाँ, पूछिए न.” डॉक्टर को लगा कि सेक्स से सम्बन्धित कोई समस्या होगी. अक्सर इस उम्र की लडकियाँ यही सब पूछती हैं.

“डॉक्टर, किसी ने हमारे साथ सम्बन्ध स्थापित किये हों यह कैसे मालूम हो सकता है?” सवाल पूछकर वह ख़ुद को बेवकूफ़ जैसा महसूस कर रही थी. यह कैसा सवाल था. शायद वह अपनी बात ठीक से नहीं रख पायी है. “मेरा मतलब है कि आप बेहोश हों और कोई उसी बेहोशी का फ़ायदा उठाकर कुछ कर बैठा हो..यह कितने दिनों बाद तक मालूम हो सकता है?”

“आपका मतलब बिना कंसेंट के सम्बन्ध स्थापित करने से है. देखिये, यह बलात्कार के अंतर्गत आता है. और रेप हुआ है या नहीं यह मालूम करने के बहुत-से तरीक़े होते हैं. सबसे पहले बल प्रयोग के निशान देखे जाते हैं. शरीर के प्रत्येक भाग की जाँच की जाती है. इंटरनल इंजरी के लिए टेस्ट किये जाते हैं. फ़ॉरेंसिक जाँच होनी हो तो पीड़िता के शरीर से या कपड़ों से बलात्कार करने वाले का सैंपल लेने की कोशिश की जाती है. सेक्स के बाद योनि में कुछ केमिकल बदलाव आते हैं उसकी जाँच की जाती है. यह सब जितना जल्दी हो जाए उतना अच्छा है.” डॉक्टर ने दो सेकंड रुक कर विराम लिया. “आपके साथ कुछ हुआ है, कोई परेशानी है तो आप मुझे बता सकती हैं.”

“डॉक्टर, पिछले महीने मेरा एक्सीडेंट हुआ था. उस समय मैं टैक्सी में थी. एक्सीडेंट के बाद कुछ समय तक मैं अचेत रही थी. पता नहीं क्यों पर मुझे लगता है एक शंका मन में बैठ गयी है कि उस समय ड्राईवर ने मेरे साथ अवश्य कुछ किया है.”

“ऐसा लगने की कोई ख़ास वजह है या यूँ ही?”

“उसकी कुछ हरकतें, जो शक़ के दायरे में आती हैं और नहीं भी. मैं असमंजस में हूँ.”

“देखिये, अब इतने समय बाद कुछ कहना असंभव है. चेक-अप से भी कुछ मालूम नहीं हो सकेगा. आपको संदेह था था तो उस समय ही कुछ करना चाहिए था. अब इन सब बातों का असर अपने जीवन पर मत होने दीजिये. इतने समय बाद इन बातों का कोई अर्थ नहीं रह जाता.” डॉक्टर उसकी मनः स्थिति समझ रही थी.

“हाँ, मैं आपको एच आई वी टेस्ट करवाने की सलाह ज़रूर दूँगी. क्या आपने किसी से यह बात शेयर की है? किसी दोस्त से, अपने पार्टनर से या माता-पिता से?”

“नहीं, मैं नहीं कर पाई.”

“अकेले इन बातों से जूझने से बेहतर है आप किसी को अपनी दुविधा बताइए. जिस पर आपको यक़ीन है आप उस से यह शेयर करिए. मोरल सपोर्ट बहुत-सी मुश्किलों का हल होता है.  ऐसे मामलों में पार्टनर के एक्सेपटेंस से बहुत असर होता है. स्ट्रेस के लिए दवाई लिख देती हूँ. आपको आराम आएगा. फिर भी कोई परेशानी हो तो आप जब चाहें मुझे कॉल कर सकती हैं. यह मेरा नंबर है.” डॉक्टर ने अपना कार्ड देते हुए कहा.

डॉक्टर से बात करके आज उसे काफ़ी राहत महसूस हो रही थी. उसने तय किया घर जाकर वह सुहास को सब बता देगी. उस से ज़्यादा यक़ीन उसे किसी पर नहीं. माँ भी पता नहीं कैसे रियेक्ट करें. पर सुहास..वह सब समझ लेगा.

घर पहुँची तो सुहास बाहर था. आमने-सामने कहते-कहते कहीं वह हिम्मत न खो बैठे या सुहास के आते-आते उसका मन न बदल जाए इसलिए उसने तय किया कि सारी बातें उसे मेल कर दी जाएँ. वह कोई भी ब्यौरा नहीं छोड़ना चाहती थी. वह विस्तार से लिख कर अपनी बात कहेगी. मेल लिखते-लिखते कई घंटे हो चले थे. कितनी बार कुछ लिखती और मिटा देती. कभी भाषा अनुरूप नहीं लगती कभी भाव. लिखते-लिखते उस रात के डर को वह फिर महसूस कर रही थी. कितनी बार उसकी आँखें भीग गयीं. वह सुहास को किसी तरह का शॉक नहीं देना चाहती थी न ही वो चाहती थी कि वह उसे ग़लत समझे. बहुत सतर्कता से वह लिख रही थी. अंत में जब मेल पूरा हुआ तो बिना दोबारा पढ़े झट उसने सेंड का बटन दबा दिया. वह मेल भेजने या नहीं भेजने के बीच किसी तरह की उलझन का दख़ल नहीं चाहती थी. क्यों उसे पहले ख़याल नहीं आया कि अपनी तकलीफ़ किसी से साझा कर लेनी चाहिए. अब मेल भेजने के बाद अपना डर, संशय सब उसे बचकाना प्रतीत हो रहा था, एक बेसिर पैर की बात. मेल भेजकर वह चैन की नींद सो गयी…लगभग एक महीने बाद.

घंटी की आवाज़ से उसकी नींद टूटी. घंटी लगातार बजे चले जा रही थी. यह सुहास है, वही ऐसे आता है. सुहास कैसे रीऐक्ट करेगा. वह नाराज़ तो नहीं होगा या ग़ुस्से में? अगर सुहास ने उसे ही दोषी ठहरा दिया तो? यह ख़याल आते ही दरवाज़ा खोलने से पहले वह हिचकिचायी. फिर दरवाज़ा खोल किसी अपराधी की तरह सुहास के सामने खड़ी हो गयी. सुहास कुछ क्षण देहरी पर खड़ा उसे देखता रहा फिर खींच कर अपनी छाती से उसे चिपका लिया. अपना सारा प्रेम सुहास ने उस आलिंगन में भर दिया था. उस आलिंगन में प्रेम के अतिरिक्त बहुत-से भाव थे…डर, बेबसी,अननया के प्रति हिफ़ाज़त का भाव. वह देर तक उसे भींचे खड़ा रहा.  जब छोड़ा तब अनन्या का चेहरा हथेलियों में भर कर देर तक चूमता रहा. अपने चुंबनों से वह उसकी पीड़ा सोख लेना चाहता था. भले ही वह सब अनन्या का भय मात्र रहा हो, लेकिन वह अकेले इस पीड़ा को सहती रही थी. कितनी उदास थी अनन्या पिछले कुछ दिनों से. वह समझ क्यों नहीं पाया? उसके लिए अनन्या से महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं. फिर अनन्या को जब सबसे अधिक उसकी आवश्यकता थी वह क्यों अनभिज्ञ बना रहा? वह स्वयं को दोषी ठहरा रहा था. वह क्षण भर रुकता, अनन्या को देखता, उसके बालों में हाथ फिराता, फिर उसे चूम लेता.

अनन्या को डर था लेकिन कहीं न कहीं यक़ीन भी था कि सुहास ऐसी ही प्रतिक्रिया देगा. अब उसे सुकून था. सुहास साथ है तो दुनिया चाहे उलट-पलट हो जाए उसे रंचमात्र फ़र्क़ नहीं पड़ता. सबसे बड़ा संबल था वह उसका. पहले कह देती तो इतने दिनों की कशमकश से बच जाती. सोचते हुए वह सुहास की छाती से लग गयी.

“पहले क्यों नहीं बताया?” सुहास रूँधी हुई आवाज़ में बोला.

“बस नहीं बता पायी.” अनन्या की आवाज़ भी भीगी थी.

“मुझे माफ़ कर दो अनन्या.” शब्द मुश्किल से बाहर आ पा रहे थे. “मैं तुम्हारा विश्वास अर्जित नहीं कर पाया. तुम्हारी उदासी नहीं पकड़ पाया. मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ लेकिन प्यार किस काम का जब मैं तुम्हें समझ ही न पाऊँ.’

“नहीं सुहास, तुम्हारी कोई ग़लती नहीं. मैं ख़ुद ही कुछ नहीं समझ पा रही थी. लेकिन अब से  वायदा कि कैसी भी बात हो तुमसे नहीं छिपाऊँगी.”

“पर तुम्हें बताना चाहिए था.”

“जानती हूँ.”

“तुम अकेले यह सब….” सुहास की मज़बूत आवाज़ बिखरी हुई थी.“तुम्हारी जान को भी ख़तरा हो सकता था. पहले बताती तो कुछ ऐक्शन लिया जा सकता था .कन्फ़र्म किया जा सकता था कि कुछ हुआ है या नहीं.” वह शायद कहते हुए झिझक रहा था.

“क्या तुम्हें फ़र्क पड़ता है सुहास?”

“नहीं पर तुम्हें तो पड़ा न. तुम किसी बात की वजह से परेशान हो तो ज़ाहिर तौर पर मुझे भी फ़र्क पड़ेगा.”

“अब तुम्हें बता देने के बाद मैं ठीक हूँ.”

“क्या तुम चाहती हो उस से बात की जाए…टैक्सी ड्राईवर से?”

“नहीं, बात करके क्या हासिल. तुम साथ हो तो मुझे अब उस बात से कोई मतलब नहीं.” अनन्या की आवाज़ में निश्चिन्तता थी.

“अनन्या, आय लव यू…लव यू सो मच.” कहते हुए सुहास ने उसे फिर गले से लगा लिया. ओह! उसकी अनन्या…किस मानसिक स्थिति से गुज़र रही होगी. सोचकर उसे फिर रोना आने लगा. जब मेल आया तब एक असाइनमेंट ख़त्म कर वह घर के लिए निकल रहा था. आज वह जल्दी पहुँच कर अनन्या को सरप्राइज़ कर देना चाहता था.  तभी मेल फ़्लैश हुआ. अनन्या का मेल! उसे कॉलेज की दिनों की याद आयी जब दिन भर में वे बेहिसाब मेल एक-दूसरे को करते थे. आज इतने सालों बाद मेल कर अनन्या ने ही उसे सरप्राइज़ दे दिया. उसने प्यार में भरकर जल्दी से मेल खोला तो एक-एक शब्द नश्तर की तरह उसके भीतर उतरता चला गया. मेल पढ़ने के बाद वह सन्न रह गया था. अनन्या की महीने भर की यन्त्रणा एक क्षण में उसकी हो गयी थी. नहीं, उसकी अनन्या के साथ कुछ नहीं हो सकता, कभी नहीं. ऑफ़िस के बाथरूम में बंद होकर वह देर तक रोता रहा था. ऑफ़िस बंद होने के बाद भी वह घर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. घंटों इधर-उधर भटकने के बाद उसे जब होश आया वह तुरंत अनन्या के पास घर पहुँच गया था.

सुहास के लिए आज की रात लम्बी थी. अनन्या के सो जाने के बाद भी वह करवटें बदलता रहा. चाह कर भी उसे नींद नहीं आ पा रही थी. वैसा कुछ हुआ होगा या नहीं? अनन्या का डर ही होगा. कुछ होता तो ड्राईवर यूँ ही छोड़ कर चला आता. नहीं, ज़रूरी भी नहीं. छोड़ आता तो पुलिस केस बन जाता. सुहास की स्थिति वही हो चली थी जो पिछले एक महीने से अनन्या की थी. अनन्या का जिया हुआ डर उस पर हावी हो चला था. पासे अब उसके आगे बिखरे थे जिन्हें वह अलग-अलग तरीक़े से उलट-पलट कर देख रहा था.

अनन्या के मेल के हिसाब से जब हादसा हुआ तब लगभग साढ़े बारह बज रहे थे. ड्राईवर ने जब उसे फ़ोन किया तब रात के तीन बज रहे थे जबकि वह अनन्या से हादसे के समय ही मोबाइल माँग रहा था. इतनी देर का अन्तराल क्यों रहा होगा? हो सकता है उस समय नेटवर्क न रहा हो या अनन्या का मोबाइल उसी समय ऑफ़ हो गया हो इसलिए उसे नंबर न मिला हो. यह भी हो सकता है वह उसकी हालत देखकर घबरा गया हो इसलिए सीधे अस्पताल ले गया हो. लेकिन इतनी देर…रास्ता तो इतनी देर का नहीं. गूगल मैप उसके आगे खुला था और वह एक्सीडेंट वाली जगह से अस्पताल तक पहुँचने का वक़्त माप रहा था. संशय और पीड़ा से उसकी आँखें आहत थीं. वह किसी शून्य में खोया था. हो सकता है अस्पताल की औपचारिकतायें पूरी करने के बाद उसने फ़ोन किया हो. लेकिन अनन्या ने लिखा था कि जब उसने मोबाइल ऑन किया तब उसमें अस्सी प्रतिशत बैटरी थी फिर मोबाइल बंद कैसे हुआ? दो महीने ही तो हुए हैं अभी मोबाइल ख़रीदे. उसने एक गहरी साँस छोड़ी. इतनी भारी आवाज़ जैसे किसी ने पत्थर बाँध कर किसी को समंदर में छोड़ दिया हो. अनन्या की नींद उचट गयी. सुहास को ऐसे देखकर उसके पास आ बैठी. सुहास ने उसका हाथ थाम लिया. तभी अचानक सुहास को कुछ याद आया. यह बात उसकी सोच में चुभ तो बहुत देर से रही थी पर वह उसे अनदेखा कर रहा था. लेकिन अब और नहीं हो सकेगा.

“अनन्या, एक बात बताओ. तुम्हें सीट की जेब से जो कॉंडम का बॉक्स  मिला क्या वह तुमने वापस वहीं रख दिया था?

अनन्या सोच में पड़ गयी. कुछ देर सोच कर उसने कहा..”नहीं, वापस तो नहीं रखा था. वह देखकर मैं लगभग शॉक की स्थिति में थी. वापस रखने का ख़याल ही नहीं आया.” अब चुप रहने की बारी सुहास की थी.

“क्यों, क्या हुआ?”

“जब उसने तुम्हारा सामान अस्पताल में जमा करवाया तो कॉंडम वाला बॉक्स क्यों छोड़ दिया? उसे मालूम था कि वह तुम्हारा नहीं था!  क्या वह उसी का था? हो सकता है उसने वह जान-बूझ कर वहाँ रखा हो.”

हो भी सकता है और नहीं भी. कुछ होने की सम्भावना अब भी उतनी ही थी जितनी न होने की.

जिस संदेह को अनन्या छील कर बाहर फेंक देना चाहती थी वह और गहरा गया था.

दिव्या विजय

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