मनीषा कुलश्रेष्ठ किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं. हमारे दौर की इस प्रमुख लेखिका का हाल में ही कथा-संग्रह आया है- ‘गन्धर्व-गाथा’. प्रस्तुत है उसी संग्रह से एक कहानी लेखिका के वक्तव्य के साथ- जानकी पुल.
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भूमिका
कॉलेज के दिनों में मेरे पास एक टी – शर्ट हुआ करती थी, उस पर लिखा हुआ था ‘फ्रीक’! मेरे चचेरे बड़े भाई, जो कि चर्चित पक्षी वैज्ञानिक हैं, उन्होंने बहुत चाव से ‘गिफ्ट’ की थी और मुस्कुरा कर ‘फ्रीक’ का शाब्दिक अर्थ बताया था, “नेचर’स फ्रीक वो होते हैं जो प्रकृति के नियमों से कुछ अलग – से, विचित्र होते हैं, म्यूटेट जीन्स की वजह से या त्वचा के रंजकों की अनुपस्थिति की वजह से या किन्ही अन्य अप्राकृतिक व्यवहारगत वजहों से.”
प्रचलित अर्थों में फ्रीक का अर्थ आज कौन नहीं जानता – विचित्र ! सनकी ! मेरे मायनों मे जो फंतासी और यथार्थ के बीच का फर्क भुला बैठा हो. प्रकृति इतने अजूबों से भरी पड़ी है कि लगता है, ईश्वर से बड़ा ‘फ्रीक’ कौन, जो खुद असमंजस में है कि क्या तो यथार्थ में रचे और क्या फंतासी में.
न जाने क्यों ऎसा हुआ है कि गाहे – बगाहे या तो ऎसे विचित्र लोग मुझसे आ टकराए हैं, या फिर खुद आकर उन्होंने अपनी कहानियाँ सुनाई हैं, कुछ अपनी किस्सागो माँ से इन विचित्र अजूबों के सच्चे – अध सच्चे किस्से सुने हैं. शायद यही कारण है कि प्रचलित अर्थ में तो मेरी ज़्यादातर कहानियों में‘फ्रीक्स’ ही
जगह पाते हैं, क्योंकि मुझे वो विचित्र नहीं लगते….फंतासी और यथार्थ के बीच जीते सहज – सरल मानव ही लगते हैं. इसी धरती के लाल, उसी फ्रीकी ईश्वर के बन्दे. कई बार तो मुझे खुद भ्रमनुमा यकीन या यकीननुमा भ्रम होता रहा है कि मैं खुद एक ‘फ्रीक’ हूँ क्योंकि हरेक व्यक्ति के अन्दर एक चुप्पा ‘फ्रीक’ छिपा होता है. यह ‘फ्रीकी एलीमेंट’ कुछ और नहीं आपको तमाम दुनिया से अलग दिखाता हुआ सनकनुमा तत्व होता है. कितनों में साहस होता है अलग दिखते, करते हुए चल पाने का? हम लीक से बँधी इस दुनिया का हिस्सा होना चाहते हैं, समाज की प्रतिष्ठा में शामिल, परिवार की परिभाषा में फिट! बस यही वजह है कि हम अपने भीतर के उस फ्रीक को छिपा कर रखते हैं, अपनी विचित्रता में छिपी विशिष्टता को ढँक कर रखते हैं. जो उसे गले लगाते हैं और उसका हाथ थाम लेते हैं, बजाय अपनी इस विचित्रता से द्वन्द्व करने के… वो कुछ भी हो सकते हैं, एक्टीविस्ट, कलाकार… हटेले, खिसकेले, हाँ पागल भी! ‘एपल’ के संस्थापक स्टीव जॉब्स ने भी ऎसों के समर्थन में कहा था “ द क्रेज़ी वंस, द मिसफिट्स, द रिबेल्स!
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कहानी
खरपतवार
उसकी यादों में कुछ दहशतें और कुछ वहशतें अब भी बाकी हैं। सप्ताह के बाकी दिन वह फाइलों, टेलीफोनों, लोगों से मुलाकातों के बीच वह खुद पर व्यस्तता के छिलके चढा लेता है। अवकाश के दिन ये छिलके उतर जाते हैं और वह अपनी आत्मा के आगे नंगा खडा होता है। स्थिति को बदल न पाने में जब वह खुद को नपुंसक महसूस करता है तो चल पडता है शहर से बाहर की ओर…समुद्र और क्षितिज की तरफ..शहर पीछे छोड क़र, हल्की ऊंचाई की तरफ बसे एक उपनगर की तरफ। जहां से कुछ किलोमीटर बाद जमीन खत्म हो जाती है और समुद्र शुरू। जमीन के आखिरी छोर से जरा पहले, एक चढाई पर नेवी बेस का ऑफिसर मैस बना है। जिसे एक सडक़ गले में बांहें – सी डाले घेरे रहती है। सडक़ पर एक तरफ गुलमोहर के पेड हैं, दूसरी तरफ रैलिंग है। जहां नीचे, बहुत नीचे समुद्र है, बहुत सी चट्टानों से घिरा और उन पर सर पटकता हुआ। यह गुलमोहर वाली सडक़ एक जगह, हाथ की रेखाओं की तरह अचानक कट कर बहुत कुछ बदल देती है। लगभग सारा साफ सुथरा परिदृश्य बदल कर मलिनता से बोझिल हो जाता है। सडक़ का यह कटा हिस्सा नीचे को उतर जाता है।
बारिश के पानी से भरे गङ्ढे हर कदम पर थे। वह उन्हें फलांगता रहा। उसकी स्मृतियों में, उसके साथ ये गङ्ढे फलांगने लगी एक लडक़ी। लडक़ी जो खुद को चट्टानें फोड क़र निकल आई घास से ज्यादा नहीं समझती थी, मगर उसका जीवित और लडक़ी होना उसकी तमाम निष्क्रियताओं पर से परतें उघाड ज़ाता था, उसे सांस लेनी ही होती थी। उसे हिलना – डुलना भी होता था। रंगबिरंगे कपडों क़े टुकडों को जोड क़र बनाए गए झोले को लटका कर अकेले घूमने वाली लडक़ी की याद के साथ, आस – पास का परिवेश, आवाजें, सन्नाटे और हवा में डोलती तेजाबी महक अपने आप आ – आकर उससे गले मिलने लगे थे। वह ‘गारबेज डिस्पोजल प्लान्ट‘ के करीब पहुंच गया था।
एक निश्चित ढलान पर आकर सडक़ पूरी तरह गंदे पानी से भर गई थी और मैदान शुरू हो गया था। नाक ने, तेजाबी बदबू में अस्पताल की शामिल होतीखून, मवाद और मल की महक को महसूस किया। चेतना लगभग सुन्न थी। इस बार उसने पैन्ट के पांयचे भी नहीं उठाए। अस्पताल का पिछवाडा आ गया था। खून में लिथडी पट्टियां, सीरिंज, सैलाइन और ग्लूकोज क़ी प्लास्टिक की बोतलें, रबर के गन्दले दस्ताने….क्या नहीं पानी में बह कर आ रहा था और पैरों से टकरा रहा था। मगर वह बढता रहा। वह मैदान के बीच आ गया, जहां सर्वेन्ट क्वार्टरनुमा छोटे – छोटे घर थे। घर क्या थे, जर्जर कंकालों की तरह खडे, क़ाई लगे मकानों के ढांचे भर थे। कुछ में दरवाजे थे, कुछ में टीन का पतरा लगा कर सुरक्षा और निजता को किसी तरह बचा लेने का दिखावटी इंतजाम किया हुआ था। वह कोने के एक घर के पास घिसटता हुआ जा खडा हुआ। उसके पांयचों से पानी टपक रहा था। उसे हैरानी नहीं हुई कि उस घर का ताला टूटा हुआ था। पलंग, कुर्सी, छोटा काला – सफेद टीवी, रसोई का सब सामान नदारद था। फोन तारों से उखाड क़र चुरा लिया गया था। रसोई में एक टूटा फ्रायिंगपैन और कांच की प्लेट के टुकडे पडे थे। कुत्ते का एल्युमीनियम का कटोरा पिचका हुआ पडा था। कमरे में पुरानी फोटो जमीन पर पडी थीं, फ्रेम गायब थे। स्ट्रेप टूटी काली ब्रा बाथरूम की चौखट पर पडी थी और एक लाल सैण्डल, अधूरी छूटी हुई…अकेली।
उसने सैण्डिल को उठा लिया और….अब वह अपने अतीत की शरण में था।
स्मृतियों से बाहर आकर नीचे नजर दौडाने पर एक पूरा लैण्डस्केप नजर आता है। जहां रेगिस्तान में बदलता समुद्र है। एक आकस्मिक मोड है। तारीखें दोहराने में उसे तकलीफ होती है, इसलिए वह लम्बे अन्तरालों बाद स्मृतियों को धुंधली छवियों की तरह देखता है।
वह मानसूनी दिन जब वह उस कॉलोनी में पहली बार अचानक ही जा पहुंचा था। नहीं पहुंचता तो जान ही नहीं पाता कि उसके शहर से पन्द्रह किलोमीटर आगे क्षितिज की तरफ बढें तो, ऐसी भी कोई कॉलोनी है या उसके शहर के मुहाने पर इतना बडा ‘गारबेज डिस्पोज़ल प्लान्ट‘ है।उस दिन वह अपने क्लाइन्ट के स्पाइस गार्डन की तरफ जा रहा था। सीधे जाने की जगह…पहले ही चौराहे पर गलत मोड मुड ग़या। गलत सडक़ पर चलते हुए जब वह इस ढलान पर उतरा था तो हैरान रह गया था। सीली हुई नमकीन हवा के साथ आकाश में समुद्री पक्षी उड रहे थे। समुद्र की आवाज भी आ रही थी मगर समुद्र कहीं दिखाई नहीं देता था। उसे जरा उम्मीद न थी कि वह कचरे के इस सौ फीट ऊंचे और लम्बे चौडे टापू के पीछे हहरा रहा था। गोल घूम कर नीचे को जाती सडक़ के एक तरफ कचरे का टापू था और दूसरी तरफ सैंकडों इमारतें। गंधाते हुए कचरे के ढेर के एक दम करीब, अजीब – सी बस्ती, सडक़ से लगी हुई चार-चार माले की मटमैली और काई जमी कई इमारतें। किसी ने बताया था पहले यहां झुग्गियां थीं। फिर यह कॉलोनी बनाई गई। बिना परदों वाली खिडक़ियों में से उन घरों में रहती निम्नमध्यमवर्गीय जिन्दगियों की ऊब और उदासी झांक जाती थी।
उस दिन पानी भरे इसी ढलान में फंस कर उसकी कार खराब हो गयी थी। वह कार से बाहर निकला तो समुद्र के किनारे गंदगी का यह संपूर्ण साम्राज्य उसके लिए नरक के काल्पनिक दृश्य जैसा था। उसे आश्चर्य हुआ कि यहां लोग रहते भी हैं। यहां समुद्र भी है, कचरे के टापू के उस पार। वह गन्दे पानी में फंसी गाडी छोड क़र अस्पताल के पिछवाडे वाले मैदान की तरफ बढा, शायद कहीं कोई गैराज वाला मिल जाए। बहुत देर पैदल चलते – चलते उसे अंतहीन मटमैली इमारतों के गुंजल में कहीं कुछ नहीं मिला। सडक़ पर चलते उदासीन से इक्का – दुक्का लोगों ने अनभिज्ञता जाहिर कर दी। एक पूरा गोल चक्कर काट कर वह अस्पताल की इमारत के सामने पहुंचा। वहां मुख्य सडक़ के दूसरी तरफ एक गली में कुछ कच्ची – पक्की सी दुकानों की छोटी सी कतार थी। पहली दुकान एक देसी शराब की दुकान थी। दुकान क्या एक कोठरी थी, जिसमें दो बेंचें पडीं थीं। किसी शीतलपेय की कंपनी का मुफ्त में दिया गया फ्रिज था जिसमें से शीतल पेय की बोतलों के साथ – साथ कुछ बियर की बोतलें झांक रही थीं।
”क्या लेंगे साब?” भीतर से एक तहमद वाला काला आदमी पलंग पर लेटे लेटे बोला था।
” बस पानी दे दो।”
” दुकान का पानी साफ नहीं है साब..मिनरल वाटर चलेगा? बाकि सॉफ्ट ड्रिंक है, दारू है। बियर, फेनी…लोकल वाइन” वह आदमी तहमद संभाले उठ कर बाहर आ गया था।
” दे दो यहां आस – पास कार का कोई गैराज होगा? वहां नीचे बारिश के पानी में फंस कर मेरी कार बन्द हो गयी है।”
” शहर की तरफहोयेगा तो होयेगाइधर स्कूटर वाला मिस्त्री है।”
” फोन?”
” पहले अस्पताल के उधर एस. टी. डी. बूथ था। अभी कुछ दिन से दुकान वाला भाग गया। अब दो किलोमीटर आगे एक रेस्टोरेन्ट है….वहां…”
अब तक वह दृश्य में आ गयी थी। एक बेंच पर कोने में सीपियों और घोंघों को टोकरी में से एक कागज़ क़ी पुडिया में कुछ छांट कर डालती हुई। हैरतअंगेज था उसका वहां होना। पहले वह झोला दृश्य में आया, फिर उसके भूरे बिखरे, बेतरतीब बाल, झुकी पीठ, फिर उसकी लम्बी घेरदार नीली स्कर्ट फिर लम्बे, बेहद पतले पैर और अधटूटी चप्पलें। चेहरा कहीं नहीं था। बालों के घने गुच्छे में से एक आवाज आई
” मैं नेवी में गाडी ठीक करने वाले मैकेनिक का घर बता सकती हूं। मेरा बिल चुका दो तो तुम मेरा फोन भी इस्तेमाल कर सकते हो।” वह अंग्रेजी बोल रही थी।उसका उच्चारण भी साफ था।
”एक बियर। एक फेनी का बोतल। दो लिम्का। और ये सीफूड का साब दस रूपया।आपका मामला तो फिक्स हो गया साब।” दुकान वाला मोटा और काला आदमी अश्लीलता से बोला था।
” चलो।” वह जल्दी में था।
बालों में से एक चेहरा निकला, गोरी मगर पीली त्वचा से मढा, गाल की ऊंची हड्डियों वाला तिकोना चेहरा।
लम्बी घास के बीच ऊबड – ख़ाबड पगडण्डी पर वह उसके पीछे चल पडा था।उसने गौर किया लडक़ी की चाल अजीब है। पतले – पतले पैर चलते में धनुष से बन जाते हैं । वह उन्हें चौडे क़रके चलती है। बतख की तरह।थैला उसकी अजीब – सी शख्सियत को और अजीब कर देता है।
वह इस दुनिया से अपना तादात्म्य ही नहीं बिठा पा रहा था। वह नींद में है और अजीब सा सपना देख रहा है या जागा हुआ है? सरकारी अस्पताल के पीछे बने सर्वेन्ट क्वाटरों में से एक में वो घुसे। कमरा बहुत छोटा था। अंधेरा और सीलन भरा। बल्ब जलाने पर लुटा – पिटा उजाला हुआ। बाहर तेज रोशनी से अन्दर आकर अंधेरे से अभ्यस्त होने की कोशिश में वह बस यही देख पाया कि काई लगी दीवार पर टंगी यीशू की लकडी क़ी मूर्ति कील पर से खिसक कर टेढी हो गयी थी। वह न जाने कहां गुम हो गयी थी। उसे शक हुआ।
” वहां बिस्तर के पास फोन है।” अंधेरे में आवाज ग़ूंजी, किसी करीबी कोने से। बर्तनों की आवाज से पता चला कि वह रसोई में है। अब वह हल्का – हल्का देख पा रहा था। काला और उंगलियों से डायल करने वाला फोन वहां तिपाई पर रखा था। उसने जल्दी – जल्दी तीन फोन किए।
वह बियर ढाल लाई थी, चौडे मगों में। बियर गर्म थी इसलिए कसैली भी लग रही थी, पर उसे अच्छा लग रहा था पीना। बियर खत्म होने पर लिम्का और फेनी का कॉकटेल चला। दो मकडियों की तरह एक खामोशी के जाल में फंसे बैठे दोनों पीते रहे थे।
कुछ देर बाद लडक़ी उसे मिस्त्री के घर के बाहर तक पहुंचा आई। उसने मिस्त्री को गाडी तक पहुंचाया, चाभी पकडाई। वह बोनट खोल कर देखने लगा।
”कितनी देर लगेगी?”
”डेढ – दो घन्टा लगेगा। टो करके गैराज ले जाना पडेग़ा।”
मिस्त्री के साथ बने रहने की जगह, गाडी ठीक होते ही लडक़ी के घर लाने के लिए कह कर वह वहीं लौट आया। लडक़ी अपना वादा निभा चुकी थी। वह फिर क्यों लौट आया था?
शायद वह अजीब लडक़ी उसमें दिलचस्पी जगा चुकी थी। पता नहीं…क्यों? तब कुछ सोचा नहीं। सोचा भी हो तो याद नहीं रहा। लेकिन अब लगता है कहीं भीतर, कुछ दबा – कुचला उठ कर सांस लेना चाहता था।
वह खुद को रोक पाता उससे पहले वह दरवाजा धकिया चुका था। दरवाजा बन्द था मगर कुण्डी नहीं लगी थी सो हल्के धक्के में खुल गया। लडक़ी की आंखें झपक गयीं थीं, वह बिस्तर पर अधलेटी थी। उसका एक हाथ बच्चे की तरह दीवार से टिका था, जैसे नींद की वायवीय और अवास्तविक दुनिया में भी वह हाथ टिका कर ठोस दुनिया के होने के अहसास को न भूलना चाहती हो। उसने बिस्तर के बगल की दीवार पर लगे यीशू की मूर्ति को उंगली की हल्की छुअन से सीधा किया। बिस्तर के सिरहाने एक अखबार तहाया हुआ रखा था। उसमें क्रॉसवर्ड हल की हुई थी।उसे अजीब लगा। यह इस हाशिये की दुनिया और उस सभ्रान्त संसार के बीच की कोई खोई हुई कडी है क्या?
उसके जहन पर धुंध छा रही थी– दिन भर का भटकाव, थकान…गंदगी के साम्राज्य के बीच….। वह उसके बिस्तर के किनारे बैठ गया। उसे गौर से देखने लगा। नजरेंmanisha kulshreshth
12 Comments
बहुत ही सुन्दर, कहानी सोचने पर विवश करती हैं
अंत नाटकीय है… मगर जिंदगी भी ऐसी ही है… हमलोग आज भी स्त्रियों की जिंदगी से आसानी से खेल जाते है और वह भी हमें उतनी आसानी से खेलने देती है…
यह कहानी उनकी किताब "केयर ऑफ स्वात घाटी" में भी शामिल है।
आमतौर पर पूरी कहानी पढ़ पाना मेरे लिए थोडा मुश्किल होता है. या यूँ कहें कि जहाँ तक दिलचस्प लगे वहीं तक, पर ये कहानी पूरी एक साथ पढ़ गया, सचमुच कलेवर दिलचस्प है साथ ही चरित्र चित्रण जो थोडा हट के है अच्छा लगा. विशेषतौर पर ये लाइन ''व्हेन ए फ्लावर ग्रोज वाइल्ड इट कैन आलवेज सर्वाइव। वाइल्ड फ्लॉवर्स डोन्ट केयर व्हेयर दे ग्रो।'' खरपतवार जो खेतों कि मुंडेरों पर भी बड़ी मस्ती से लहलहाते है, बिना किसी परवाह के गुनगुनाते है और छोड़ जाते है अपने बीज अगली फसल के लिए. पुरुष कि व्यक्तित्व के उस दुरूह पहलु को इतनी गहराइ से व्याख्या कि है कि पुरुष भी सोचने लगता है, आपको ये कैसे पता, सुंदर रचना लगी
:)) अनुराग ! फेसबुक से इतर ही गंभीर साहित्य है. फेसबुक पर सूचनाएँ, डूडलिंग्स, स्क्रिबलिंग्स, गाने – ग़जलें, कुछ मन में अटक गए वाक्य, वाक़यात, फोटो – वीडियो बाँटना एक बात है और मेरे लिए 'कहानी' लिखना एक बात है. 🙂
दिलचस्प है !
मनीषा फेसबुक से इतर जब कागजो में बतोर लेखक उतरती है तो सुखद रूप से चौकाती है .कहानी की शुरुआत इतनी दिलचस्प नहीं लगी पर ज्यू ज्यू आगे बढ़ी इसके किरदार अपना खाका खींचने लगे ,गलिया, घर ,डाइलोग ….सब . गिल्ट ओर अपने खोल से बाहर निकलने के लिए छटपटाते पुरुष को उन्होंने तरतीब से सभी शेड्स में रखा है .रिश्तो के जटिल परिवेश के साथ समांनातर चलती एक ओर दुनिया को भी सबसे बडी विशेषता भाषा है . रीडर फ्रेंडली है .सहज ओर बिना जटिल हुए वो इस कहानी को "फ्लो "में रखती है . लम्बी कहानिया एक ही पेस में चले ओर अंत तक इसे निभाते हुए किसी सार्थक मोड़ पर पहुंचे वे इस कवायद में सफल हुई है वैसे इसे पढ़कर
एक फिल्म" प्लोय " याद आ गयी जो इसी तरह के अजीब से जटिल होते रिश्तो पर बनी है जिसकी बड़ी इंट्रेस्टिंग टेग लाइन थी
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