जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

मैथिली और हिंदी के वयोवृद्ध साहित्यकार 82 वर्षीय मायानन्द मिश्रको ‘मंत्रपुत्र’ के लिए वर्ष 1988 में साहित्य अकादमी द्वारा सम्मानित किया गया था। डॉ. मिश्र को भारत सरकार के साहित्य अकादमी के अलावा बिहार सरकार द्वारा ग्रियर्सन अवार्ड भी मिल चुका है। वर्ष 2007 में उन्हें प्रबोध साहित्य सम्मान से भी नवाजा जा चुका है। मिश्र का जन्म 1934 में बिहार के सहरसा जिला के बनैनिया गांव में हुआ। 1956 में प्रो. मिश्र ऑल इंडिया रेडियो पटना से जुड़े जहां उस समय के लोकप्रिय कार्यक्रम चौपालमें उनकी जादुई आकर्षक आवाज समां बांध देती थी। वर्ष 1970 में उन्हें साहित्य अकादमी की सलाहकार समिति का सदस्य मनोनीत किया गया। मायानंद मिश्र जी के 1967 में राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित उपन्यास माटी के लोग सोने की नईयाको हिंदी साहित्य में आंचलिक-सामाजिक रचनाओं में मील का पत्थर माना जाता है।प्रस्तुत है उनकी कुछ कविताएँ. मैथिली से जिनका अनुवाद युवा लेखक विनीत उत्पल ने किया है- जानकी पुल. 
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मुखौटा


उस दिन एक अद्भुत घटना घटी
वह बिना मुखौटा लगाए चला आया था सड़क पर 
आश्चर्य!
आश्चर्य यह कि उसे पहचान नहीं पा रहा था कोई 
लोग उसे पहचानते थे सिर्फ मुखौटा के साथ
लोग उसे पहचानते थे मुखौटे की भंगिमा के साथ
लोग मुखौटे की नकली हंसी को ही समझते थे असल हंसी
मुखौटा ही बन गई थी उसकी वास्तविकता
बन गई थी उसका अस्तित्व 
वह घबरा गया
देने लगा अपना परिचय
देते ही रहा अपना परिचय
देखिये, मैं, मैं ही हूं, इसी शहर का हूं
देखिये-
बाढ़ में बहती चीजों की तरह सड़क पर बहती जा रही छोड़विहीन अनियंत्रित भीड़
चौराहा भरा हुआ है हिंसक जानवरों से
गली में है रोशनी से भरा अंधियारा
कई हंसी से होने वाली आवाज, कई हाथ
सब कुछ है अपने इसी शहर का
है या नहीं?
देखिये
सड़क के नुक्कड़ पर रटे-रटाए
प्रलाप करती सफेद धोती कुर्ता-बंडी
सड़क पर, ब्लाउज के पारदर्शी फीता को नोचते
पीछे पीछे आती कई घिनौनी दृष्टि
देखिये
अस्पताल के बरामदे पर नकली दवाई से दम तोड़ते असली मरीज
एसेम्बली के गेट पर गोली खाती भूखी भीड़
वकालतखाना में कानून को बिकती जिल्दहीन किताब
मैं कह सकता हूं सभी बातें अपने नगर को लेकर 
मैं इसी शहर का हूं, विश्वास करें
लेकिन लोगों ने कर दिया पहचानने से इनकार
वह घबरा गया, डर गया और  भागा अपने घर की ओर 
घर जाकर फिर से पहन लिया उसने अपना मुखौटा
तो पहचानने लगे सब उसे तुरंत
और  उस दिन से
वह कभी भी बाहर सड़क पर नहीं आया बिना मुखौटा लगाये।
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युग वैषम्य

कर्ण का कवच-कुंडल जैसा
हम अपनी संपूर्ण योगाकांक्षा को
दे दिया परिस्थति-विप्र को दान
मेरे पिता नहीं थे द्रोणाचार्य
बावजूद इसके मैं हूं अश्वत्थामा
वंचना मेरी मां है
जो कुंठा का दूध छोड़ रही है।
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साम्राज्यवाद

विश्व शांति की द्रौपदी के कपड़े
खींच रहे हैं अंधे के संतान
(दृश्य की वीभत्सता का क्या कुछ है भान)

कौरवी-लिप्सा निरंतर आज
बढ़ता जा रहा है दिन आैर रात।
खो चुका है बुजुर्ग जैसे आचार्य की प्रज्ञा
मूक, नीरव, क्षुब्ध और असहाय!
किंतु!
किंतु बीच में उठ रहा है भूकंप
जन-मन का कृष्ण फिर से
ढूंढ रहे हैं अपना शंख।

अनुवाद: विनीत उत्पल
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