कोरियन भाषा की लेखिका हान कांग को साहित्य के नोबेल पुरस्कार दिये जाने की घोषणा हुई है। हान काँग को उनके उपन्यास ‘द वेजेटेरियन’ को प्रतिष्ठित मैन बुकर प्राइज मिला मिल चुका है। उसी उपन्यास और अनुवाद को लेकर यह लेख लिखा है जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में कोरियान भाषा की प्राध्यापिका कुमारी रोहिणी ने-
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जब हम अनुवाद की बात करते हैं या किसी लेखन का अनुवाद करने की शुरुआत करते हैं तब एक सवाल हमारे सामने मुँह बाए खड़ा हो जाता है (कम से कम मेरे संदर्भ में ऐसा ही है क्योंकि मैं एक प्रोफेशनल अनुवादक नहीं हूँ), वह सवाल है “एक अनुवाद को किस हद तक उसके मूल लेखन की तरह होना चाहिए? दुनिया भर के विशेषज्ञों ने इस सवाल के कई जवाब दिए हैं लेकिन मैं यहाँ एक दो लोगों के उद्धरण से ही अपनी बात रखना चाहूंगी. अनुवाद की बात करते हुए व्लादिमीर नबोकोव (जो एक रुसी अमेरिकन साहित्यकार थे और कम से कम तीन भाषाओँ के ज्ञानी थे और जिसमें से दो भाषाओँ के लेखक थे) ने इस सवाल के जवाब में कहा था “एक फूहड़ और भद्दा शाब्दिक अनुवाद किसी बहुत अधिक सुंदर वक्तव्य या कथन से ज्यादा उपयोगी होता है”.वहीँ दूसरी तरफ अर्जेंटीना के कथाकार बोर्खेज मानते हैं एक अनुवादक को अनुवाद करते समय मूल लेखन से सौ प्रतिशत जुड़ा नहीं होना चाहिए, बल्कि उसको इसे बदलने और साथ ही बेहतर करने की कोशिश भी करनी चाहिए. बोर्खेज के अनुसार “अनुवाद सभ्यता का ज्यादा विकसित रूप है”. किसी भी अनुवाद को पढ़ते समय आप “लेखन के उत्कृष्ट और अधिक विकसित रूप को पढ़ते हैं. अनुवाद की भूमिका साहित्यिक जीवन में कितनी अधिक है इस बात को प्रमाण की ज़रूरत नहीं है. आज अनुवाद का क्षेत्र इस क़दर विकसित हो चुका है कि हमें सिर्फ़ अंग्रेज़ी ही नहीं बल्कि अन्य भाषाओं की किताबें (साहित्यिक, असहित्यिक) भी हिंदी तथा अंग्रेज़ी में उपलब्ध होने लगी हैं. शुरुआती दौर में पाठ्यक्रम की किताबों का अनुवाद चलन में आया, इसके बाद किसी भी भाषा की कालजयी कृतियों का अनुवाद हुआ और आज की स्थिति यह है कि अगर हम किताबों के बाज़ार का मुआयना करें तो उदाहरण स्वरूप बेस्ट सेलर साहित्यिक उपन्यासों से लेकर बाबा रामदेव के योग की किताबें भी हमें हिंदी और अंग्रेज़ी सहित अन्य भाषाओं में आसानी से उपलब्ध हैं.
आधुनिक अंतरराष्ट्रीय साहित्य और उसके अनुवाद की बात करें तो साल 2016 का वर्ष साहित्य और अनुवाद की दुनिया में एक बदलाव का साल कहा जा सकता है. इसका मुख्य कारण 2016 के मैन बुकर पुरस्कार की विजेता किताब “वेजेटेरियन” है. यह दक्षिण कोरियायी लेखिका हानकांग रचित एक उपन्यास है जिसका अंग्रेज़ी सहित कई अन्य भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. “प्लीज़ लुक आफ़्टर मॉम” (2008) के बाद यह दक्षिण कोरिया का यह दूसरा उपन्यास है जिसने अमेरिका के साथ साथ ही दुनिया भर के अन्य देशों का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा है.
पिछले दिनों “वेजेटेरियन” ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत धूम मचाई और अब भी चर्चा में है. इसका मुख्य कारण 2016 के मेन बुकर प्राइज की विजेता किताब भर होना ही नहीं है बल्कि यह पहली ऐसी किताब है जिसे उसके मूल लेखन के साथ साथ ही उसके अनुवाद के लिए भी पुरस्कार दिया गया है. हम सब जानते हैं कि अनुवाद ने साहित्य की दुनिया को एक दूसरे से जोड़ते हुए उनके बीच की दूरी को बिलकुल कम कर दिया है. अनुवाद का योगदान लेखन की दुनिया में क्या और कितना है इस बात पर सालों से बहस होती आ रही है, बावजूद इसके साहित्य जगत ने कभी भी अनुवादक को लेखक के बराबर का दर्जा और सम्मान देने में कोताही ही बरती है. सदियों से चली आ रही इस बहस और सम्मान के इस खेल को 2016 के मेन बुकर प्राइज की घोषणा ने अल्पविराम दिया जब वेजेटेरियन की अनुवादक “डेबराह स्मिथ” को लेखिका हान कांग के साथ इस पुरस्कार से नवाजा गया. 28 वर्षीय स्मिथ पीएचडी की शोधार्थी हैं और जिन्होंने 6 साल पहले ही कोरियन भाषा की पढाई शुरू की थी. डेबराह के काम को अंग्रेजी भाषा की दुनिया में बहुत अधिक सम्मान मिला. लेकिन कुछ ही दिनों बाद कोरियन मिडिया ने इस किताब के मिस्ट्रान्स्लेशन की बात को लिखना शुरू कर दिया जिससे की इस किताब के पुरस्कृत होने की खबर धुंधली पड़ गई. हालाँकि यह बात भी सच है कि किताब की लेखिका हान ने इसका अनुवाद पढ़ा भी था और इसे अनुमति भी दी थी… स्मिथ ने तो बहुत अच्छा अनुवाद किया और किताब की मूल भाषा का तो कहना ही क्या है. हानकांग की पहली किताबों की तरह यह किताब भी अंत तक आपको खुद से बांधे रखती है और पढ़ने के बाद आपकी आत्मा को भीतर से झकझोरती है. चाहे आप वेजेटेरियन पढ़ें या हानकांग की दूसरी किताब “ह्यूमन फ़ैक्ट्स” हान आपको हर बार अपने लेखन से आश्चर्य में डाल देती हैं. वेजेटेरियन को दुनिया भर के आलोचकों ने एक कल्पना आधारित कहानी कहा है. यह कहानी मानव जीवन के आत्म विनाश को केंद्र में रख कर लिखी गई है. एक ऐसा देश जहाँ आज भी आत्महत्या का प्रतिशत बहुत अधिक है उस समाज में इस तरह की कहानी का होना और इसका लिखा जाना शायद हमें नयापन नहीं दे लेकिन इस तथ्य के बावजूद भी “वेजेटेरियन” कोरियाई समाज का एक नया रूप को लेकर सामने आता है. ऐसे तो इस कहानी में कई पात्र हैं लेकिन इसकी मूल कहानी एक ऐसे औरत की है जिसने अपना आगे का जीवन शाकाहारी बनकर जीने का फैसला लिया है, अब आप या हम कह सकते हैं कि इसमें क्या बड़ी बात है? तो समस्या या आश्चर्य उसके इस फैसले में नहीं बल्कि जिस देश की वह निवासी है फर्क उससे पड़ता है. एक ऐसा देश जिसके इतिहास के पन्नों को पलट कर देखें अगर तो आज से आठ -दस साल पहले “शाकाहार” शब्द उनके जीवन के शब्दकोष में भी नहीं था और वर्तमान में भी स्थिति बहुत अधिक नहीं बदली है, फर्क सिर्फ इतना भर आया है कि वैश्वीकरण और अन्य ऐसे कारकों की वजह से इतिहास में “हर्मिट किंगडम” कहे जाने वाले इस देश (कोरिया ) के लोगों ने दुनिया के अन्य हिस्सों से जुड़ना, उन्हें जानना और समझना शुरू कर दिया है और साथ ही वे इसका महत्व भी समझते हैं . ऐसे किसी देश में किसी परिवार की मुख्य महिला (जिसे वुमन ऑफ दी हाउस कहेंगे) ने शाकाहारी होने का फैसला ले लिया हो वह इस परिवार उस औरत के लिए आत्मघाती निर्णय से कम नहीं माना जायेगा.
किस तरह एक पूरी तरह से मांसाहारी जीवन जीने वाली महिला ने अचानक ही रातोरात सहकारी होने का फैसला लिया और उसके इस फैसले से उसके परिवार के सदस्यों जिनमें उसका पति, उसके माता पिता और उसकी बहन तथा उसके पति का जीवन प्रभावित हुआ है, इसकी एक जीवंत कहानी है वेजेटेरियन. मुख्य विषय के अतिरिक्त हान ने और भी कई मुद्दों को इस लेखन में जगह दी है है , उदाहरण के लिए इस उपन्यास की मुख्य पात्र योंग-हे को ब्रा पहनना बिलकुल पसंद नहीं है और वह इसे नहीं पहनने के मौके और उपाय दोनों तलाशती रहती है. और उसकी यह बात उसके पति चेओंग को बहुत ही अजीब लगती है, अपनी शादी के कई साल गुजार लेने के बाद चेओंग को अपने पत्नी की इस बात का पता तब लगता है जब वह उसे एक दिन किसी पार्टी में बैठे देखता है और उसका ध्यान इस तरफ जाता है. यहाँ फिर से मैं आपका ध्यान इस तरफ खींचना चाहूंगी कि कोरियाई समाज बाहर से आपको कितना भी खुला और स्वछंद दिखे लेकिन इस समाज में भी औरतों की स्थिति आज से 20 साल पहले बहुत अच्छी नहीं थी और यह समाज भी कन्फूसियन विचारधारा के कारण औरतों को दूसरे दर्जे का प्राणी समझता था और आज भी पूरी तरह से इस सोच से मुक्त नहीं हुआ है.
ऐसे समाज से आई हुई किसी लेखिका का अपने समाज के किसी स्त्री को केंद्र में रखकर इस तरह का लेखन करना आसान नहीं है और इस किताब की लोकप्रियता को देखकर यह भी कहा जा सकता है कि यह समाज का सामान्य वर्ग सही मायने में आधुनिकता को अपना रहा है.
इस किताब को मैंने अंग्रेज़ी के साथ साथ इसकी मूल भाषा में भी पढ़ा है. अंग्रेज़ी अनुवाद को पढ़ते हुए एक बार भी यह नहीं लगा कि यह कहानी अनुवाद की हुई है और यह मूल लेखन नहीं है. मेरे हिसाब से कोई भी अनुवाद इसी स्तर का होना चाहिए कि पढ़ते वक़्त वह आपको इसके मूल भाषा के लेखन की याद ना दिलाए
इस उपन्यास को पढ़ते हुए एक सबसे महत्वपूर्ण बात जो मुझे महसूस हुई वह यह कि डेबराह ने सिर्फ़ भाषा ही नहीं बल्कि संस्कृति और सभ्यता का ज्ञान भी उसी स्तर से हासिल किया है और कोरियाई समाज की उनकी समझ तरफ़ के क़ाबिल है.
मैंने किताब की समीक्षा नहीं की है, बस “वेजेटेरीयन” और डेबराह के हवाले से अनुवाद और उसकी कठिनाई और योगदान पर अपने विचार (आधे-अधूरे और अधकचरे) रख रही हूँ.