जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

हाल में ही राजकमल प्रकाशन से नन्द चतुर्वेदी की रचनावली प्रकाशित हुई है। चार खंडों में प्रकाशित इस रचनावली का संपादन किया है पल्लव ने। रचनावली पर यह टिप्पणी लिखी है प्रणव प्रियदर्शी ने- 

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नंद चतुर्वेदी जैसे कवि, गद्यकार, चिंतक और इंसान का समग्र साहित्य एक साथ पाकर मैंने पहले तो खुद को गदगद महसूस किया, लेकिन उसके बाद जब एक-एक कर चारों खंड उठाए तो मन पर एक तरह का आतंक हावी होता महसूस हुआ। वैसा आतंक जैसा तट पर चट्टानों से टकराकर बिखरती लहरें देख आनंदित होते मन को अचानक समुद्र की विशालता और उसकी गहराई का ख्याल आने पर महसूस होने लगता है। निगाहें जितनी दूर तक जाती हैं, मन उतना ही विस्मय और दहशत से भरता जाता है। सुन तो रखा है कि सागर की अतल गहराइयों में मोती होते हैं, कौन पहुंचे उन गहराइयों तक और कैसे।

नंद चतुर्वेदी रचनावली के ये चारों खंड भी साहित्य का सागर ही हैं। अचानक मन युवा साहित्यकार और प्रतिष्ठित संपादक पल्लव के प्रति श्रद्धा से भर उठा जिन्होंने इन चारों खंडों के कुशल संपादन का अभिनंदनीय कार्य किया है।

खैर मन की यह शुरुआती बोझिलता तब कम होने लगी, जब पन्ने पलटने शुरू किए। नंद चतुर्वेदी की मुस्कुराती तस्वीर ने पहली आश्वस्ति दी, उनका स्नेहिल व्यक्तित्व याद आया। चूंकि मन पर उनके कवि रूप की छाप सबसे ज्यादा स्पष्ट थी, इसलिए शुरुआत अनायास ही उनकी कविताओं से हुई। रचनावली का पहला ही खंड कविताओं का है। नंद बाबू की पंक्तियां आपको मनुष्योचित उत्साह से भर देती हैं। इस प्रतिकूल समय में जब चारों तरफ से सारी शक्तियां मनुष्य के विवेक की दुश्मन बनी नजर आती हैं, कवि के रूप में नंद बाबू आपको हौसला देते हैं कि बिल्कुल न डिगो, झूठ के शोर को अनसुना करो, सत्य को चुनो और जो सही लगे उस राह पर बढ़ो।

‘पराजय कब नहीं थी

कब नहीं थे झूठ के लिए वाह-वाह करने वाले

लेकिन तभी दल-दल से

निकल आया था समय

करिश्मे और भाग्य से नहीं

मनुष्य के उत्साह और संघर्ष से

असलियत समझते हैं लोग

वे नंगी तलवार वालों की

कायरता जानते हैं।’

(‘ईमानदार दुनिया के लिए’ संग्रह से ‘असलियत जानते हैं लोग’ शीर्षक कविता का एक अंश)

दूसरे खंड में काव्यालोचना और साहित्यिक निबंध संकलित हैं। इसमें नंद बाबू का आलोचक रूप उभरता है। साहित्य के क्या सरोकार होने चाहिए, उसकी क्या कसौटियां होनी चाहिए, इन पर जितनी सख्ती उनमें दिखती है, वह उनकी उदार और सहृदय छवि के विपरीत जाती सी लगती है एकबारगी, लेकिन यहां भी उनका यह विवेक कदम-कदम पर स्पष्ट होता है कि किसी कृति या कृतिकार के मूल्यांकन में किसी पूर्वाग्रह की, चाहे वह विचारधारात्मक ही क्यों न हो, कोई भूमिका न हो। जीवन, समाज, धर्म और बाजार के अलग-अलग रूप कवि औऱ साहित्यकार नंद चतुर्वेदी को किस तरह प्रभावित कर रहे हैं, उनका समाजवादी मन इन्हें किस तरह ग्रहण करता है, यह भी इस खंड में स्पष्ट होता है यहां भी अपनी दृष्ट विकसित करने की इच्छा रखने वाले पाठकों के देखने-समझने-सीखने को बहुत कुछ बिखरा है।

तीसरे खंड में संस्मरण, डायरी, व्यख्यान और पत्र संकलित हैं तो चौथा खंड अनुवाद और साक्षात्कार का है। खासकर तीसरा खंड नंद बाबू के जीवन के वैयक्तिक पहलू पर ज्यादा रोशनी डालता है। कई रोचक संस्मरण इसे दिलचस्प बनाते हैं और संपादकों, मित्रों तथा परिवारजनों को लिखे पत्र बताते हैं कि एक बड़ा कवि अपने निजी संबंधों का निर्वाह कैसे करता है, कैसे व्यक्तिगत जीवन के छोटे-बड़े मसलों में सार्वजनिक सरोकार को शामिल करता है और सार्वजनीन मूल्यों को कैसे रोजमर्रा की जिंदगी की आम सी लगती बातों में गूंथता है। कैसे जीवन की दुखद घटनाओं से विकल होता है और कैसे उस विकलता को संजीवनी बनाकर दोबारा जीवन संग्राम में जूझने के लिए उठ खड़ा होता है।

नंद चतुर्वेदी की व्यापक और गहरी दृष्टि जहां विदेशी भाषाओं का साहित्य खंगालकर वहां से उत्कृष्ट नमूने हिंदी पाठकों के लिए ले आती है वहीं भारत के अंदर की स्थानीय भाषाओं की दीवारें भी आसानी से लांघ जाती है। चौथे खंड में संकलित अनुवादों पर नजर डालें तो यहां प्राकृत प्रेम कविताओं के साथ ही सांथाल काव्य की भी झलक मिलती है। इसके अलावा जे बी प्रीस्टले, अल्बर्ट काम्यू, आन्द्रे जीद जैसे महत्वपूर्ण लेखकों के साहित्यिक लेखों के नंद चतुर्वेदी द्वारा किए गए अनुवाद भी यहां मिलते हैं।

हर खंड के आरंभ में संपादक पल्लव की टिप्पणी उस खंड की सार्थकता पर अपनी तरह से रोशनी डालती है। आखिर में यह कहने से खुद को रोकना मेरे लिए मुश्किल है कि वैसे तो नंद बाबू के व्यक्तित्व और कृतित्व का हर हिस्सा गौर करने लायक है, लेकिन खास तौर पर उनकी डायरी के पन्नों से गजुरना मेरे लिए विशिष्ट अनुभव रहा। यहां एक विचारक की दृष्टि, एक कवि का मन, एक इंसान की वल्नरेबिलिटी- सब इतनी पारदर्शिता के साथ मौजूद है कि चकित करती है। इसके कुछ नमूने यहां आपके लिए देना गलत नहीं होगा।

आज अपराह्न 5 बजे अरुण ने इंदु की मृत्यु के समाचार दिए। वह मेरी मौसी की बेटी थी। वह सगी बहन ही नहीं थी, लेकिन मेरी गोदी में हंसती खेलती बड़ी हो गई।… अभी तीन दिन पहले कूरियर से मैंने उसे जो बचा रहा पुस्तक भेजी जिसमें मौसाजी का व्यक्तित्व और बिन्दुत्व का वर्णन है। पुस्तक पहुंचने के पहले ही इंदु कोमा में चली गई और अपने पिता का यशगान नहीं सुन सकी। मुझे अत्यंत दुख है कि पुस्तक भेजने में मैंने विलंब क्यों कर दी?… मृत्यु का विषाद कितना दारुण, दुखद, संतापकारी होता है। मैं भी इसे भोग रहा हूं।

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रवींद्रनाथ ने लिखा है, ‘जो दुनिया मैंने चाही थी, वह मिली नहीं, जो मिली वह चाही नहीं थी।’ अनचाही दुनिया का आभार वह हमें सदा स्फूर्तिवान रखती है।

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दुखों और अंधेरों को बार-बार याद करके उनसे मुक्त नहीं हुआ जा सकता। वे आक्रामक होते हैं।

मृत्यु अनंत अंधेरे की सुरंग है यह जानते हुए भी हम अद्भुत आशा की रोशनी में चलते हैं। इस रोशनी का सूत्र कहां है? और मृत्यु के अंधेरे का?

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सबसे कठिन तो अपनी निराशाओं से लड़ना है। इसलिए कि हम खुद नहीं जानते कि हम क्या चाहते हैं और क्यों?

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…… आज सुयश के नए अपार्टमेंट प्रवेश का उत्सव है। अनुराग-क्षमा भी मेरे 91वें जन्मदिवस पर यहां आ गए हैं। वे कल पाशु की शादी में चले जाएंगे। पाशु एक विधवा अध्यापिका से विवाह करेगा। एक – दो वर्ष का बच्चा है। मैं कामना करता हूं, वे प्रसन्न रहें।

जीवन में सब हमारा चाहा नहीं होता, जो होता है उसके कारण समझ में नहीं आते। बुद्धि एक सीमा तक ही दृष्टि देती, मदद करती है। आकस्मिकताएं असंख्य होती हैं। … आकस्मिकताएं हमें निरीह बना देती हैं।

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हमारी सदी ने कई चीजें हासिल की हैं, लेकिन धीरज खो दिया है। ऋतु आने पर ही फल आएंगे। धैर्यरहित सदी दुर्घटनाओं से कुचली जा रही है।

प्रतीक्षा का आनंद लेने की उत्कंठा प्रेम का तत्व ही नहीं, जीवन का भी है।

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय

माली सींचे सो घड़ा, रितु आयां फल होय।

कुल मिलाकर, नंद चतुर्वेदी रचनावली के ये चारों खंड हिंदी पाठकों के लिए एक कीमती तोहफा हैं। जो साहित्य का रसिक समाज है, उसके लिए न तो नंद चतुर्वेदी कोई नया नाम हैं और ना ही करीब आठ दशकों में फैला उनका साहित्य कर्म। वह इनसे परिचित रहा है। लेकिन नंद चतुर्वेदी का पूरा साहित्य एक साथ एक जगह पाना इस समाज के लिए भी खासा उपयोगी है। नए पाठकों और साहित्य में दिलचस्पी लेना शुरू करने वाले युवाओं के लिए तो यह संकलन उनकी रुचि को परिष्कृत करने वाला एक शानदार औजार साबित हो सकता है। इससे गुजरना न सिर्फ एक जाने माने साहित्यकार की विकास यात्रा का गवाह बनना है बल्कि एक पूरे दौर की विशिष्टताओं की अलग-अलग परतों से वाकिफ होना भी है।

नंद चतुर्वेदी रचनावली (चार खंड)

संपादक – पल्लव

प्रकाशक – राजकमल प्रकाशन

मूल्य – 2500 रुपये

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