हाल में युवा लेखिका दिव्या विजय का कहानी संग्रह आया है ‘तुम बारहबानी’। इस संग्रह की बहुत सारगर्भित भूमिका लिखी है जाने-माने कवि-लेखक यतीन्द्र मिश्र ने लिखी है। वाणी प्रकाशन से प्रकाशित इस संग्रह की भूमिका आज आपके लिए प्रस्तुत है- मॉडरेटर
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अपने सर्जनात्मक क्षणों को कथा में रूपान्तरित करने की पुरानी परम्परा है। भारतीय समाज हमेशा से कथाओं और आख्यानों का देश रहा है, जहाँ स्मृतियाँ वाचिक परम्परा में हमारी गाथाएँ आज तक सुनाती चली आ रही हैं। ऐसे में कथा कहने का ढंग बहुश्रुत और लोकप्रिय है। साहित्य के सन्दर्भ में कहानी लेखन को यदि हम मात्र पिछली शताब्दी के आधार पर स्मरण करें तो बहुत सारी बहुलार्थों वाली कहानियाँ अलग-अलग कालखण्डों में लिखी जाती रहीं और हिन्दी कहानी परम्परा को लगातार प्रवाह और पुनर्नवता सुलभ होती गयी। हाल के वर्षों में अपने अनूठे शिल्प और सृजन-कर्म से हिन्दी कथा-साहित्य में पहचानी जाने वाली दिव्या विजय की कहानियों का यह संकलन ‘तुम बारहबानी’ उस नये आसमान को छूने की कोशिश है, जिस फलक के विस्तार को पाने का जतन ही चैंकाने के साथ आश्वस्तिदायक है। निर्मल वर्मा एक बेहतर बात सृजन में सौन्दर्य और नैतिकता के सन्दर्भ में कहते थे कि ‘अपने ही द्वारा रची गयी भूलभूलैया को अगर शब्दों में कहा जाए, तो कहानी की हैसियत से कहानी की नियति को नहीं खोला जा सकता।’ दिव्या विजय इन कहानियों के कथ्य में उसी तरह संघर्षरत खड़ी हैं, जहाँ कुछ छूट जाने के भय से परे, कुछ नया पाने की आकांक्षा भी कहानियों के मन में नहीं है। जटिल होते जाते सामाजिक विन्यास को, अपने शिल्प, भाषा और पात्रों की मानसिकता में उतरकर यह देखना कि अपने लिए वह ख़ुद किस चीज़ की माँग करता है? उसे जज़मेण्टल होने से बचाती हैं। यह इन कहानियों का लगभग प्रस्थान-बिन्दु ही है कि लेखिका किसी निर्णय पर आने से बचते हुए उसे परिस्थितियों, पात्रों के आपसी दबाव, रिश्तों के बीच कुछ अबूझ रह गये स्पेस को… और जो न कहा जाए, उसे ही कहने के लिए बार-बार एक नयी कहानी के सम्मोहन में फँसती हैं।
‘तुम बारहबानी’ दरअसल मानवीय संश्लिष्टता के उन अबोध सूत्रों को टटोलने जैसा है, जैसे हम किसी ख़ास क्षण में रहते हुए उसके अवसाद को परे धकेलकर अतीत के सुख में लौट जाना चाहें। यह लौटना, स्मृतियों को दोनों हाथों से समेट लेने की चाहत, एक ख़ास ढंग से रिश्तों के बीच आई निरर्थकता को समझने की कोशिश, प्रेम, छल, भय और पछतावे को निहायत निःस्पृह भाव से पकड़ने की बेधक कोशिश, इन कहानियों को एक ऐसा प्रतिसंसार रचने की छूट देती हैं जहाँ सब कुछ कहानीकार के मन माफिक नहीं है, बल्कि वह पात्रों और उनके परिवेश के अधीन अपना भविष्य सुनिश्चित करता है। कोई स्वप्न यदि वह रचना के भीतर पल रहा है, तो उसकी अवसाद से मुक्ति भी उस कहानी के कथ्य को जटिल बनाने से हर सम्भव जतन रोकती है और उसका सहज मानवीय रूप तलाशने के ढेरों नये मार्ग खोजती है। इन कहानियों का कथानक कभी भी पात्रों को उनके सांस्कृतिक आवास से विस्थापित नहीं करता, बल्कि बार-बार उस विचार पर लौटने की कोशिश करता है, जिस तरह शास्त्रीय गायन में एक ही पंक्ति को अलग-अलग ढंग से बरतते हुए, बार-बार उसे पूर्णता में पकड़ने के लिए सम पर लौटना पड़ता है। ‘तुम बारहबानी’ जैसी कहानी इस मामले में आदर्श है कि वहाँ हम प्रत्येक चरित्र के आन्तरिक परिवर्तनों को देखते हैं। कथा संरचना, वर्तमान और अतीत की यादों के बीच सूक्ष्म रूप से बदलती है, यह दर्शाते हुए कि पात्रों का वर्तमान जीवन उनके अतीत से किस क़दर जुड़ा रहता है। कहानी में अर्जुन का यह कहना- ‘हम रास्ता बना लेंगे’ यह दिखाता है कि प्रेम कभी हारता नहीं और दो लोग सच में यदि एक-दूसरे के लिए समर्पित हैं, तो वे किसी भी परिस्थिति में अपने रास्ते बना सकते हैं। खुले और स्वच्छन्द तरीके से जीवन का नये सिरे से आरोहण कर सकते हैं। इसी तरह ‘बालू की भीत’ गहरे भावनात्मक अन्तःसंघर्ष में फँसे हुए बब्बा, एक छोटे बच्चे की असहायता और अपने सहपाठियों से धोखा खाने की कहानी है। इस जटिल भावनात्मक यात्रा में उसे सत्य और झूठ, नैतिकता और प्रतिशोध, क्षमा और धोखे के द्वन्द्व के बीच लाकर उस निर्णायक बिन्दु पर खड़ा करती है, जहाँ एक बच्चे के अनुभव को व्यावहारिक स्तर पर मनोवैज्ञानिक लेखन सुलभ हुआ है। कहानी पाठकों को सोचने पर मजबूर करती है कि हम अपने आस-पास के परिवेश में बच्चों के साथ किस तरह का व्यवहार करते हैं? उनके मन में किस तरह की भावनाएँ आरोपित करते हैं?
‘महानिर्वाण’ एक ऐसी विडम्बना को ढो रही है, जहाँ मृत्यु के बाद भी पुरानी मान्यताएँ और समाज की असंवेदनशीलता ने आज भी उस आदिम युग को जरा भी नहीं बदला है, जिसके लिए शिक्षा और सामाजिक क्रान्ति के कितने अवसर हमने पिछली शताब्दियों में बनते देखे हैं। ‘महानिर्वाण’ कहानी को आज के ग्रामर यदि कहा जाए, तो एक संयमित ‘ब्लैक कामेडी’ की तरह उभरती है, जहाँ सामाजिक, पारिवारिक ताने-बाने के बीच बड़ी से बड़ी संवेदनशील बात भी मोती के माले की तरह बिखरकर छिटक गयी है। ऐसा ही अन्य कहानियों- ‘छाया-प्रतिच्छाया’ और ‘मसि कागद छुओ नहीं’ में भी संवेदना के स्तर पर एक अलग ही फलक विस्तृत होता है, जो सामाजिक व्यवस्था को हौले से स्पर्श करते हुए हमारे समय को प्रश्नांकित करता है। लेखिका ने इन कहानियों में जो सबसे सुन्दर युक्ति अपनायी, वह यह कि किसी विशेष निर्णय पर पहुँचने की हड़बड़ी को विखण्डित कर दिया गया है, पाठकों को उनके अपने संवेदनात्मक मनोभावों के साथ किसी भी पात्र को परखने की आज़ादी है… और सबसे बड़ी बात यह कि हम इनसे गुज़रते हुए कहीं भीतर ठोकर खाते हैं कि सूक्ष्मता का यह तल तो शायद हमने भी पहले कहीं देखा था, मगर उसे अनदेखा करके आगे बढ़ गये। बिल्कुल उसी तरह, जिस तरह किसी पुराने अन्धे कुएँ में बाल्टी डालने पर झाँकते समय पानी के समवाय में उसकी ध्वनि को नज़रअन्दाज़ कर दिया हो। आनन्द कुमारस्वामी कहते थे कि हम आत्मविस्मृति में जीना भूल गये हैं। यह शायद हर चीज़ को तत्काल में पाने की आकांक्षा के कारण सम्भव हुआ हो। दिव्या विजय इस तत्काल से परहेज़ करते हुए, संवेदना के उन महीन धागों को समाजशास्त्रीय ढंग से इस तरह अपने शिल्प, भाषा और विचार के साथ आख्यान का हिस्सा बनाती हैं, जिसमें मनुष्य की स्मृति, उसकी अपनी स्वायत्तता और स्वयं पर संदेह करने की कुंजी हाथ लगती है। इस कहानी-संग्रह की यही बड़ी सफलता है, जिसे ‘तुम बारहबानी’ अपनी कोमलता के साथ थोड़े से खुरदुरेपन को साधते हुए आगे बढ़ती है।
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