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आज पढ़िए अर्चना के शंकर की कहानी ‘गुलाबी साड़ी और दाल’। अर्चना स्वतंत्र लेखन के साथ-साथ अनेक डिजिटल मंच के लिये लिखती हैं।उनकी यह कहानी बिल्कुल ही अलग तरह से बुनी हुई, लीक से हटकर है जो देखने में ऐसे तो सामान्य दिनचर्या वाली लगे लेकिन ध्यान से पढ़ने पर मालूम होता है कि कितना कुछ संकेत करती है यह जिसमें  निम्नवर्गीय जीवन में जी रहे लोगों के मनोविज्ञान की ओर ध्यान ले जाना एक बड़ी विशेषता है।                                  गुलाबी साड़ी और दाल    कच्ची…

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पिता को याद करते हुए यह कविताएँ लिखी हैं संदीप नाईक ने, जो गहरे मन तक छूती हैं, जिन्हें पढ़ते हुए प्रत्येक व्यक्ति को पिता के साथ अपना संबंध याद हो आए।बहुत संभव आप को भी वह गहन संबंध की अनुभूति हो। संदीप नाईक ने छः विषयों में स्नातकोत्तर किया है, 38 वर्षों तक विभिन्न प्रकार की नौकरियाँ करने के बाद आजकल देवास, मप्र में रहते हैं। इनके ‘नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथाएं’ कहानी संग्रह को प्रतिष्ठित वागेश्वरी पुरस्कार प्राप्त है।इन दिनों हिंदी, अंग्रेजी और मराठी में लेखन-अनुवाद और कंसल्टेंसी का काम करते हैं।================================= पिता का होना आकाश के…

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  जैसा कि आप सभी जानते हैं कि प्रथम जानकी पुल शशिभूषण द्विवेदी स्मृति सम्मान युवा लेखिका दिव्या विजय को भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित उनके कथा संग्रह \’सगबग मन\’ के लिए दिये जाने का निर्णय लिया गया है। आगामी 6 जुलाई को दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में एक समारोह में उन्हें यह सम्मान प्रदान किया जाएगा। इस अवसर पर लेखिका के साथ एक लंबी बातचीत प्रस्तुत है। यह बातचीत की है प्रखर लेखक प्रचण्ड प्रवीर ने। यह बातचीत बहुत अलग तरह की है जो लेखिका की कथा यात्रा के साथ साथ कथा संवेदनाओं को लेकर है। आइये यह विस्तृत…

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काव्यात्मक समीक्षा के लिए यतीश कुमार को किताबें चुनती रही हैं। इस बार उनको चुना है जानकी पुल शशिभूषण द्विवेदी स्मृति सम्मान से सम्मानित लेखिका दिव्या विजय की डायरी \’दराज़ों में बंद ज़िंदगी\’ ने। आप भी पढ़ सकते हैं- ========================================= बौराहट की छाजन लिए वे शशोंपंज जो किसी और से सीधे साझा न हो पा रहा हो, जिसे टोंचने में तकलीफ़ हो, ऐसी स्थिति में अपनी अनावृत आत्मा की उलीच को लिख देना सबसे अच्छा माध्यम है और दिव्या ने भी यही किया।मन के गुंजलकों की कुलाँचों को पढ़ते हुए जो भी भाव उभरे उसे यहाँ बस पिरोया गया है…

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आज पढिए संजय लीला भंसाली की वेब सीरीज़ ‘हीरामंडी’ पर जाने माने पत्रकार-चित्रकार रवींद्र व्यास की सम्यक् टिप्पणी। रवींद्र जी ने देर से लिखा है लेकिन दुरुस्त लिखा है- =========================== फ़ानूस और मशाल! नमाज़ गूंजती है। शुरुआत होते ही अंधेरे में एक ख़ूबसूरत फ़ानूस चमकता है। काली-भूरी पहाड़ी पर जैसे शफ़्फ़ाफ़ आबशार। फ़ानूस की चार हिस्सों में नीचे झरती रौशनी में आलीशान महल या कोठी की दीवारें साँस रोके खड़ी हैं। हर बेक़रार करवट में गिरते आंसुओं और इश्क़ की आह और कराह की चुप गवाह। हर षड्यंत्र की बू को सहती-सोखती….आती-जाती और इश्क़ में फ़ना होती रूहों की उठती-गिरती…

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सिमोन द बोउआर का प्रसिद्ध कथन है “स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है”। ठीक इसी तरह पुरुषों के लिए भी यह कहा जा सकता है कि पुरुष पैदा नहीं होते, बनाए जाते हैं। शालू शुक्ल की यह कविताएँ विविध स्वर वाली कविताएँ हैं जिनमें से एक पुरुष निर्मिति की ओर ही ध्यान दिलाती है। इसके साथ किसी अपने की पुकार पर लौट आने, ठहरने का निवेदन भी है, देवताओं की पूजा-अर्चना करने के बनिस्पत अपने आस-पास के लोगों की सहायता करना भी है, हाउसवाइफ का दुख भी है और ‘जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि’ जैसे कहावतों पर…

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‘उमस के समीकरण’ कहानी लिखी है ज्योत्स्ना मिश्रा ने। ज्योत्स्ना मिश्रा पेशे से चिकित्सक हैं और कथाओं के रंगमंच की कलाकार भी। उनकी यह कहानी कई स्तरों की ओर इशारा करती है चाहे वो आज के जमाने में सोशल मीडिया का प्रभाव हो, विवाहेतर संबंध हो, प्रेम के नाम पर दिया जा रहा भ्रम हो या स्त्री को एक शरीर से इतर कुछ भी न देख पाने का मनोविज्ञान हो। आप भी पढ़ सकते हैं – अनुरंजनी ============================= खिड़की खुली रखना मजबूरी थी, साँकल लगती ही नहीं थी। जून का महीना था पूरी-पूरी दोपहरी उमस ठिठकी खड़ी कुछ सोचती रहती।…

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आज जानकी पुल की विशेष प्रस्तुति मनीषा कुलश्रेष्ठ द्वारा- ============================== यूरी बोत्वींकिन मेरे फ़ेसबुक मित्र काफी समय से रहे हैं, मगर वैयक्तिक परिचय वातायन के एक लाइव के दौरान हुआ। बातों-बातों में तब उनके लेखन से परिचय हुआ तो मैं चकित रह गई, भारतीय दर्शन को में उनकी गहरी पैठ देखकर। विदेशी होने के कारण किसी की अच्छी हिन्दी पर चौंकना मैंने बहुत पहले बंद कर दिया था जब विश्वहिंदी सम्मेलनों में मेरा परिचय विश्व-भर के हिन्दी मर्मज्ञों से हुआ। लेकिन किसी ने असंख्य हिन्दी कविताएं लिखी हों और एक अनूठा नाटक ‘अंतिम लीला’ भी यह अभिभूत करने वाली बात…

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आज जब हर व्यक्ति एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में लगा हुआ है तब कोई अपने साथ के व्यक्ति को ( ख़ास कर एक ही पेशे में होने के बावजूद) भरपूर प्रेम और सम्मान से याद करे तो यह निश्चित ही मनुष्यता की ओर आश्वस्ति का भाव पैदा करता है। यह भी तभी संभव होता है जब प्रेम और सम्मान परस्पर हों। पल्लव जी, एक शिक्षक और बनास जन के संपादक अपने समकालीन आशीष त्रिपाठी के प्रति इसी तरह का अनुभव हमसे साझा कर रहे हैं ।आप भी पढ़ सकते हैं – अनुरंजनी =================================================== …

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