आज पढ़िए सपना भट्ट की कविताएँ। उनकी कविताओं का अपना विशिष्ट स्वर समकालीन कविता में बहुत अलग है। आप भी पढ़िए उनकी कुछ नई कविताएँ-
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1
यहीं तो था!
अज्ञात कूट संकेतों के
अप्रचलित उच्चारणों में गूँजता
तुम्हारी मौलिक हँसी का मन्द्र अनुनाद
यहीं रखे थे
प्रागैतिहासिक अविष्कारों से पूर्व के शीत और ताप
यहीं राग, विराग और हठ थे
यहीं थे त्वरा और शैथिल्य भी
जब पावस ऋतु के
आदिम रन्ध्रों की झीसियों से अविराम भीजती थी धरा
कंपकपाते गात की सिहरन यहीं रखी थी
अच्छे भले तटस्थ दिनों में
जब तब चली आती थी याद सुबकती हुई।
याद थी हठीली,
मौसमी बुखार की तरह देह को मथती
उस याद में भी
तुम्हारे नाम की अचेत बुदबुदाहट यहीं तो थी
यहीं उत्सव थे, यहीं शोक
यहीं उन्माद था, यहीं संकोच
यहीं क्षण क्षण कटता था मन , दुःख के सरौते से
यहीं रेतघडी सा था जीवन
प्रतिपल छीजता और रीतता हुआ
यहीं प्रेमिल संवाद थे, यहीं अभेद्य अकेलापन
ईर्ष्याएँ यहीं थीं अदम्य, भीतर तक पैठी हुईं
यहीं हास्य था, यहीं रुदन
यहीं था अटूट वैराग्य, यहीं अकुंठ विलास
इसी विखंडित क्षितिज पर
पराजय का टूटा हारा सूर्यास्त था
यहीं झिलमिल आशाओं का झीना मद्धम आलोक भी
देह की इस बंजर भूमि में
खनिजों धातुओं और जीवाश्मों के अतिरिक्त था
आकंठ प्रेम से भरा हुआ मन भी
पुरातत्व वालों की काहिली देखो
उन्हें यहां न गाढ़े चुम्बन मिले
न अंतरंग स्पर्श और न ही आकुल आलिंगन ही
तुम तो जानते हो !
आत्मा के इस जीर्ण खोखल में ही तो रखी थी
बिंब दोष से खंडित मेरी कच्ची पक्की कविताएँ !
यहीं थी न
तुम्हे खोजती, मेरी आर्त विह्वल पुकार !
भूगर्भशास्त्री कब के लौट गये
जबकि यहीं भग्न जीवन था, यहीं अटल मृत्यु
यहीं तो ….
2
यह जो स्मृतियों की
छाया से ढका निर्वात है पुरातन
आत्मा के इसी प्राचीन शून्यागार में
उसकी आवाज़ की उष्ण आवृत्तियाँ गूँजती थी
यही बोधि थी, यही प्रज्ञा
इन्ही अंतरंग आरोह अवरोहों के भरोसे थे संकेत
इसी भाषा पर ठिठकता था मेरे कानों का अबोध एकांत
इसी आवाज़ की तरंग पर चेतना भंग होती थी
मुझे कहां कुछ सूझता था ?
सिवाय इसके कि दुख हो या प्यार
उसकी ही आवाज़ में ढूंढता है कोई मुझे
इस अकुंठ वीतराग में भी
कोई पुकारता है मेरा नाम उसी की ध्वनि का सहारा ले
उसकी ही अर्वाचीन भंगिमाओं का चोला पहन
ध्यान के इस गह्वर में
मैं उसी की आवाज़ को टटोल कर आगे बढ़ रही हूँ भंते !
तुम्ही ने सिखाया था न
अनित्य है संसार, मिथ्या है जगत का मोह !
तब किस एषणा का धर्मबीज
मेरी क्लान्त छाती में खुबकर बंजर हो जाता है
मुक्ति की बात क्या कहूँ भंते !
मैं ठहरी विरह के बाण से बिंधी स्त्री
मौन समाधि में नेत्र मूँदे युगों तक बैठी ही रहूं तब भी
बैराग जगेगा ही नहीं, मोह छूटेगा ही नहीं
न ! मैं शील नहीं जानती
धम्म भी नहीं;
मैं तो बस यह जानती हूं कि
जिस देह के हर अणु को
प्रणय की प्रबल आदिम प्यास जलाती है
प्रेय को शिशु सा अंक में भर लेने की करुणा भी
उसी देहफूल से उपजती है
झर जाती है …..
3
चुप रहना !
कि एक अकेली आह से भी
भंग होता है अबोध एकांत
एक विह्वल हिचकी से टूट सकता है
कंठ तक सरक आए रुदन का कठोर संयम
अपनी भंगिमाओं को निरखना
कि इसी गद्य से सपाट चेहरे से चीन्हेंगे लोग
तुम्हारी पीड़ाओं का पौराणिक आख्यान
एक पुकार से मैले हो जाएंगे
उसके नाम की वर्तनी के सब स्वर और व्यंजन
गहन शोक में भी
मिलन के उत्सव की स्मृति से जब इत्र सी महकेगी काया
वक्ष पर हाथ धरकर डपटना होगा हृदय को बार बार
नग्न पतझर की शब्दहीन आवृत्तियों में
लौटा करेगा कामनाओं का स्थगित वसंत
सूखे पत्तों के गिरने भर से
नष्ट हो जाएगा गझिन उदासियों से भरा एकाकीपन
चुप रहना, कुछ न कहना
चाहे उपहास के इसी थान की
कतरनों से सजे लाज की काया
मालकौंस की मन्द्र थाप पर
सिमरना उस बैरी का नाम
जिसके होंठों की औषधि
हर सकती है रुग्ण देह का हर संताप
भूमिसात होने देना
प्राणों का निस्तेज पीला फूल उसकी चौखट पर
वैसे भी धूल के अतिरिक्त और क्या है यह मिथ्या संसार !
चुम्बन हो कि मृत्यु
सब स्वीकार करना
स्वीकार करना
मस्तक पर छपा लज्जा का अमिट दाग़ भी
प्रेम की हताशा भी
चुप रहना ….
4
अनिद्रा की ऋतु है
नदी किनारे पड़े पत्थर की तरह
गर्म और अभागी
देह पर यात्रा की थकन नहीं
पछतावों की धूल है
शिकस्त का मलाल है
बड़े जतन से
कामना के ज़हरीले फूलों की
सुनहली आभा के मोह से खींच लाई हूँ;
आकाशगंगाओं से टकराती हुई
अपने दुखते मन की आख़िरी तरंग भी
कानों में देर तक ठहरी
उसकी आवाज़ की रूमानी अवस्थिति
अब स्मृतियों की तरह ही एक पुरातन जगह है
जर्जर और अस्पष्ट
क्या कीजे !
भूलते हुए याद रखने का असमंजस
याद को भूलने की ही तरह एक बेतुकी कोशिश है
द्वार खुला है
बस आने-जाने की
वैकल्पिक क्रियाएँ थक कर बैठ गयी हैं
विदा दुःस्वप्न सी साकार हो उठी है
अब उसकी मन्द्र पुकार के
गुरुत्व से मुक्त हैं आत्मा
धुंधलका घिर आया है
मैं उसे अकेला छोड़ आई हूँ
न, मेरा मन इतना पक्का कब है ?
यह सूझ और साहस भी उसी का दिया हुआ है….
5
रात्रि आत्मा के
जिस सीले अंधेरे में प्रेम का क्लेश था
विदग्ध काया की उसी एकांतिक भूमि पर
ठंडी सुनहरी भोर उतर रही है
कैसी निस्सीम शांति है!
श्वास के हर धागे में
जिसके नाम का मनका बंधा है न
एक दिन वह माला भी टूट जानी है
हर रसद की एक मियाद हुआ करती है
जैसे अपने ही रुधिर से कम हो जाएं श्वेत रक्त कणिकाएँ
मन से प्रीत छीजती रहती है धीरे धीरे चुपचाप
कभी पुराने सितार से भी ज़ख़्मी हो जाती हैं उंगलियाँ
अंधेरे पर भी उजाले का दाग़ लगता है
सौंदर्य के आधिक्य से भी
कुम्हलाता है आँख का पानी,
बहुत दुख से ही आत्मा खोखली नहीं होती
बहुत प्यार भी उम्र खा जाता है
कोई करवट बदलूँ
साथी दुःख मेरी ओर ही मुँह करके सोते हैं
आँख खुलते ही मुस्कुरा कर कहते हैं
कि “जैसे सदा नहीं रहती कोई स्मृति, कोई इच्छा,
कोई स्पर्श या देह गंध इस पार्थिव जगत में
प्रेम का यह दुःख भी न रहेगा”
जब कुछ नहीं सूझता
तब प्रेम कांधे पर हाथ नहीं धरता
दिलासा नहीं देता
यह तो मृत्यु की सदाशयता है
जो एक दिन कान में आकर धीमे से कहती है
कि उठो!
उसकी स्मृतियों की पोटली बाँध लो
पृथ्वी पर रोने का यह तुम्हारा अंतिम दिवस है
आओ मेरे साथ चलो …