कुछ साल पहले अंग्रेजी के एक अन्तरराष्ट्रीय प्रकाशक रैंडम हाउस ने इब्ने सफी के एक उपन्यास का अंग्रेजी अनुवाद छापा. आज़ादी के बाद के आरंभिक दशकों में कर्नल विनोद जैसे जासूसों के माध्यम से हत्या और डकैती की रहस्यमयी गुत्थियां सुलझाने वाले इस लेखक के ‘हाउस ऑफ फियर’ के नाम से प्रकाशित इस अनुवाद को अंग्रेजी के पाठकों ने इतना पसंद किया कि यह किताब अनेक पत्र-पत्रिकाओं की बेस्टसेलर सूची में आ गई. मूलतः उर्दू में लिखने वाले और हिंदी में पढ़े जाने वाले इस लेखक की ओर अचानक हिंदी के प्रकाशकों का एक बार फिर ध्यान गया और ज़ल्दी ही हार्पर कॉलिंस ने इनके उपन्यासों का उर्दू से हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया. यह अलग बात है कि हिंदी में उनके उपन्यास इस तरह हाथोंहाथ नहीं लिए गए. लेकिन इससे इतना तो हुआ ही कि हिंदी में बेस्टसेलर की चर्चा शुरु हो गई.
इसी तरह २००९ में बंगलौर के एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर ने हिंदी के जासूसी उपन्यास-लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यास ‘पैंसठ करोड़ की डकैती’ का अंग्रेजी अनुवाद किया. उसके प्रकाशन को भी एक बड़ी घटना की तरह देखा गया. अमेरिका की ‘टाइम’ मैग्जीन की बेस्टसेलर सूची में उस अनुवाद का नाम आया. वहीं यह खबर भी आई थी कि हिंदी में उस उपन्यास की करीब ढाई करोड़ प्रतियाँ बिकी थीं. लगे हाथ यह भी बता दूं कि अपराध-कथाओं में लगभग क्लासिक का दर्ज़ा पा चुके उपन्यास ‘वर्दी वाला गुंडा’ की अब तक करीब 8 करोड़ प्रतियाँ बिक चुकी हैं. जबकि हिंदी में इनके उपन्यास आज भी ‘सस्ता साहित्य’ का दर्ज़ा रखते हैं और अधिकतर सडक के किनारे पटरियों पर इनकी बिक्री होती है. हालाँकि यह भी अजब संयोग है कि जिन दिनों सुरेन्द्र मोहन पाठक, इब्ने सफी अंग्रेजी अनुवाद में धूम मचा रहे थे हिंदी में उनका बाज़ार गिरता जा रहा था. मेरठ और दिल्ली के पास बुराड़ी की गलियों में फैले इनके प्रकाशक सिमटते जा रहे थे. तिलिस्मी-ऐयारी उपन्यासों की ज़मीन पर खड़ी हुई जासूसी-अपराध कथाओं की यह विधा पिटने लगी थी.
अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में भी का नया पाठक-वर्ग तैयार हो रहा है. पेंगुइन की कमीशनिंग एडिटर वैशाली माथुर ने एक महत्वपूर्ण बात की ओर इशारा किया- ‘भारत में साथ प्रतिशत से अधिक आबादी 30 वर्ष से कम उम्र की है. एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग बना है इस आयु-वर्ग में भी जिसके पास खरीदने की क्षमता बढ़ी है, पढ़ने की भूख भी है. लेकिन ये पाठक मोटे-मोटे ‘हेवी’ साहित्य नहीं पढ़ना चाहते.’ ये सीधी-सरल भाषा में सीधी-सरल कहानियां पढ़ना चाहते हैं. कुछ आज के युवाओं के जीवन की तरह जिसमें थोड़ी-बहुत चुनौतियाँ हों, चयन के अवसर हों, शानदार सफलताएं हों. अकारण नहीं है कि चेतन भगत आज के युवाओं का ‘आइकन’ लेखक है. इस पाठक वर्ग को अपने और करीब लाने के लिए ‘पेंगुइन ने अंग्रेजी में मेट्रो रीडर सीरीज शुरु की है. डेढ़ सौ रुपए की ये पुस्तकें महानगरों में, मेट्रो, बसों में दौड़ने-भागते युवाओं के लिए हैं.’ इस दौड़-भाग में अगर वे इन उपन्यासों को कहीं भूल भी गए तो कोई बात नहीं. फिर खरीद लेंगे, किसी मित्र से मांग लेंगे. यह नए पाठकों को साहित्य की ‘महानता’ से नहीं उसकी ‘सामान्यता’ से जोड़ने का उद्यम है.
हिंदी में साहित्य अकादेमी पुरस्कार विजेता लेखकों की कृतियों के साथ ही उर्दू शायरी को छापने वाले वाणी प्रकाशन के निदेशक अरुण माहेश्वरी इस विषय में कुछ अलग राय रखते हैं. उनका मानना है कि आज का पाठक चर्चित किताबों को पढ़ना चाहता है. तस्लीमा नसरीन के उपन्यास ‘लज्जा’ की 5 लाख प्रतियाँ बिक चुकी हैं. नरेन्द्र कोहली के ‘महासमर’ की कीमत 3 हज़ार होने के बावजूद पाठक उसे खूब खरीदते हैं. वे भी बेस्टसेलर हैं. असली बात यह है कि आप पाठकों के सामने पुस्तक को प्रस्तुत किस तरह से करते हैं.
बहरहाल, अंग्रेजी के इन लोकप्रिय उपन्यासों की सबसे बड़ी खासियत उनकी कम कीमत है. इस साल हिंदी में भी इस प्रयोग की शुरुआत हो गई है. पिछले सालों में अंग्रेजी के एक उपन्यास ‘आई टू हैड ए लव स्टोरी’ ने बिक्री और सफलता के नए प्रतिमान बनाये. दो सॉफ्टवेयर इंजीनियर युगल के शादी.कॉम के माध्यम से मिलने और बिछड़ने की इस कहानी की अंग्रेजी में दस लाख प्रतियाँ बिकीं. हाल में ही इसका हिंदी अनुवाद पेंगुइन ने छपा है. इसकी कीमत महज 99 रुपए है. ‘सस्ता साहित्य’ अब कारपोरेट हो रहा है. प्रकाशक को यह उम्मीद है कि साल भर में इसकी 10 प्रतियाँ बिक जाएँगी. अमीश त्रिपाठी के अंग्रेजी उपन्यास ‘इम्मोर्टल्स ऑफ मेलुहा’ का हिंदी अनुवाद ‘मेलुहा के मृत्युंजय’ भी बिक रहा है. यह और बात है कि वीएस नायपॉल के कलासिक उपन्यास ‘ए हाउस फॉर मिस्टर बिश्वास’ का हिंदी अनुवाद भी इसी साल प्रकाशित हुआ उसकी कोई चर्चा नहीं हुई. नाइजीरियाई लेखक चिनुआ अचीबे की महान कृति ‘थिंग्स फॉल अपार्ट’ भी अचर्चित रहा, जबकि उसका कथा-परिदृश्य भी भारतीय परिस्थितियों से मेल खाता है.
हिंदी में भी बेस्टसेलर का जो परिदृश्य बन रहा है उसमें जासूसी-अपराध कथाओं की ज़मीन खिसक चुकी है. ‘फील गुड’ के इस दौर में किताबों का एक ऐसा संसार खड़ा हो रहा है जिसमें अनुवाद के माध्यम से चेतन भगत के उपन्यास भी आ रहे हैं और स्टीव जॉब्स की जीवनी अंग्रेजी में प्रकाशित होने के महज एक महीने के अंदर हिंदी में न केवल उपलब्ध हो जा रही है, मणिशंकर मुखर्जी की पुस्तक ‘विवेकानंद की आत्मकथा’ के अनुवाद की चौंकाने वाली बिक्री हो जा रही है. प्रसिद्ध जासूसी उपन्याकार वेद प्रकाश शर्मा का शगुन प्रकाशन प्रेमचंद की कहानियां छप रहा है, हिटलर की जीवनी छाप रहा है. ‘नए’ पाठक सब खरीद-पढ़ रहे हैं. बेस्टसेलर का दायरा हिंदी में भी विस्तृत हो रहा है. यह अच्छी बात ही है कि उसका कोई ट्रेंड अभी बनता नहीं दिख रहा है, कोई एक ‘हिट’ फॉर्मूला बनता नहीं दिख रहा है.
प्रकाशक भी सरकारी पुस्तकालयों के अलावा पाठकों तक सीधे पहुँचने की कोशिश करते दिखाई देते हैं. पुस्तक मेलों का आयोजन पहले से बढ़ा है, साहित्यिक आजोजनों में प्रकाशक भी पहले से अधिक जुटने लगे हैं. हाल में ही जब इण्डिया हैबिटैट सेंटर ने भारतीय भाषा के पहले साहित्यिक आयोजन ‘समन्वय’ की शुरुआत की तो वहां हिंदी के कई प्रसिद्ध प्रकाशकों ने अपना स्टाल लगाया था. हिंदी में पुस्तक बिक्री का वह नेटवर्क धीरे-धीरे क्षीण हो गया जो लोकप्रिय साहित्य, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ जैसी पारिवारिक पत्रिकाओं के ‘गौरवशाली दिनों में था. उसी नेटवर्क के सहारे बहुत दिनों तक वेद प्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक जैसे लेखकों की जासूसी-अपराध कथाओं की धारा खींचती रही. अब इन नए तरह के मेलों-आयोजनों के माध्यम से थोड़ा-बहुत ही सही पाठकों का एक मिला-जुला वृत्त तैयार हो रहा है. इंटरनेट के माध्यम से भी किताबों की बिक्री हर साल पहले से अधिक होती जा रही है.
शायद इसी परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए हिंदी के साहित्यिक प्रकाशक वाणी प्रकाशन ने पिछले विश्व पुस्तक मेले के दौरान बेस्टसेलर पुरस्कार देने की घोषणा की थी. लेकिन वह पुरस्कार अब तक शुरु नहीं हो पाया तो उसका एक कारण यह है कि आखिर किस तरह की पुस्तकों को बेस्टसेलर माना जाए- हिंदी में मौलिक रूप से लिखी गई किताबों को, अनुवाद के माध्यम से आने वाली किताबों को. साहित्यिक-असाहित्यिक भी एक मसला हो सकता है. मसला चाहे जो हो, कुछ हिचक भी हो सकती है. हिंदी के एक ‘बड़े’ प्रकाशक ने पिछले साल वेद प्रकाश शर्मा के उपन्यासों को छापने की योजना बनाई, फिर शायद इस हिचक के कारण योजना को टाल दिया कि कहीं इससे उनकी गंभीर साहित्यिक होने की छवि न प्रभावित हो जाए.
कुछ चिंताएं हैं, कुछ सवाल हैं, एक उभरते हुए बड़े बाज़ार पर नज़र है, बेस्टसेलर का कोई खाका भले न खड़ा हो पाया हो, हिंदी की दुनिया में उसकी गूँज सुनाई देने लगी है. दीवारों की लिखावट तो यही बताती लगती है.
7 Comments
अच्छा आलेख प्रभात जी| अभी हाल-फिलहाल में राजकमल और ज्ञानपीठ से छपे कुछ उपन्यास और कहानी संग्रह के तीसरे संस्कारण की बिक्री हर्ष का विषय है| मैं दोनों तरह की किताबें पढ़ता हूँ एक ही चाव से| सुरेन्द्र मोहन और वेद प्रकाश की किताबों की बिक्री में उनकी कीमत का भी सहयोग है| अभी मनीषा जी का शिगाफ़, आपकी खुद की जानकीपुल, मैत्रेयी पुष्पा, आदि जैसे कितने ही नाम तीसरे संस्करण की सीमा पार कर चुके हैं|
आपने बहुत तथ्यपरक विश्लेषण किया प्रभात जी! और बहुत ही ज़ायज़ सवाल उठाए हैं, हिन्दी साहित्य की किताबें आज जिस हाशिए में चली गयी है, उन्हें उस हाशिए से बाहर निकालने के लिए जो भी प्रयास किए जाएं उनके परिणाम भी सामने आने चाहिए। कुछ प्रकाशक प्रयास करते भी दिखते हैं लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। सबसे बड़ी समस्या है किताबों की कीमत। और यह तब तक हल नहीं हो सकती जबतक कि सरकारी खरीद में होनेवाली कमीशनखोरी..वरना पाठकों की कमी नहीं है
100 करोड से अधिक आबादी वाले इस देश में यदि हम साहित्यिक पुस्तक की एक/दो संस्करण की प्रतियाँ बेच पाने को ही पुस्तक की सफलता मान लेते हैं तो इससे बड़ी विडंबना और कोई नही हो सकती .. हिंदी साहित्य को बाजारवाद का सामना करने में इतनी परहेज़ क्यों है.. सस्ते साहित्य से डरकर यदि साहित्य अपने दरवाज़े बंद रखेगा तो कैसे जन जन तक पहुंचेगा.. गुलाब का नाम कुछ भी होता उसकी सुगंध तो वही रहती न..यदि बड़े प्रकाशक भी यह आत्म विशवास नही जुटा पाए तो फिर लघु और न्य प्रकाशक तो क्या करेगा..
यह आलेख पाठक वर्ग जुटाने की दिशा में उठाए जाने वाले क़दमों की और संकेत करता है.. जिसे प्रकाशकों और लेखकों को समझना चाहिए.. आभार.
हिन्दी या किसी भी समर्थ भारतीय भाषा में अपने पाठक-वर्ग की रुचि और उसकी जरूरत के साहित्य की कमी शायद ही कभी रही हो, लेकिन ऐसे साहित्य के प्रकाशन-प्रस्तुति और प्रचार-प्रसार के प्रयत्न अक्सर सीमित ही रहे हैं। सातवें और आठवें दशक में हिन्दी की व्यावसायिक पत्रिकाओं को उनकी लोकप्रियता के बावजूद उन्हीं प्रकाशन-संस्थानों ने जिस तरह बाजार से हटा लिया और उनकी जगह मंहगे मूल्य वाली चिकनी अंग्रेजी व्यापारिक पत्रिकाओं को आगे बढ़ाया, उनमें उनके वर्ग-हित स्पष्ट थे। हिन्द पाकेट बुक्स की घरेलू पुस्तक योजना को अपार सफलता मिली, उसे समर्थन देने वाली यही व्यावसायिक पत्रिकाएं थीं, लेकिन उनके बंद होने के साथ खुद उस योजना की अपनी दिलचस्पियां भी कम होती गईं, बेशक उन्होंने कोई क्रान्तिकारी साहित्य न छापा हो – गुलशन नंदा, गुरुदत्त, आचार्य चतुरसेन, कर्नल रंजीत जैसे हिन्दी लेखक ही उनकी पहली पसंद रहे हों, लेकिन उनकी कामयाबी का बड़ा राज उनकी प्रस्तुति, प्रचार-प्रसार और उनके सस्ते होने में छुपा था, जिसका एक सीमा तक उन्होंने भरपूर उपयोग किया, लघु-पत्रिकाओं में उस व्यावसायिकता की आलोचना भी हुई, लेकिन पाठकों के समर्थन में शायद ही कोई कमी आई हो। इसके बावजूद अगर उन्होंने अपने व्यवसाय को समेट लिया और कोयले की दलाली करना उन्हें ज्यादा रास आया, तो इसकी पड़ताल की जानी चाहिये कि इसके पीछे क्या कारण रहे। बहरहाल आपका लेख सोचने के कई अच्छे बिन्दु देता है। बधाई।
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