मगहिवि के वेबसाईट हिंदी समय को देख रहा था तो अचानक मुक्तिबोध की १९३५ में प्रकाशित इस कहानी पर ध्यान चला गया. कहानी को पढते ही आपसे साझा करने का मन हुआ- जानकी पुल. ——————————————————————————————————— कोमल तृणों के उरस्थल पर मेघों के प्रेमाश्रु बिखरे पड़े थे। रवि की सांध्य किरणें उन मृदुल-स्पन्दित तृणों के उरों में न मालूम किसे खोज रही थी। मैं चुपचाप खड़ा था। बायाँ हाथ \’उसके\’ बाएँ कन्धे पर। कभी निसर्ग-देवता की इस रम्य कल्पना की ओर तो कभी मेरी प्रणयिनी के श्रम-जल-सिक्त सुन्दर मुख पर दृष्टिक्षेप करता हुआ न मालूम किस उत्ताल-तरंगित जलधि…
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ज्ञानपीठ-गौरव प्रकरण में खूब बहस चली, आज भी चल रही है. आशुतोष भारद्वाज ने उस प्रकरण के बहाने हिंदी लेखक समाज की मानसिकता, उसके बिखराव को समझने का प्रयास किया है. आशुतोष स्वयं कथाकार हैं, अंग्रेजी के पत्रकार हैं, शब्दों की गरिमा को समझते हैं, लेखन को एक पवित्र नैतिक कर्म मानते हैं. मूलतः जनसत्ता में प्रकाशित यह लेख यहां बहस के लिए रख रहा हूँ. आशा करता हूं आपकी प्रतिक्रियाएं भी इस पर आएँगी और आशुतोष की बात दूर तलाक जायेगी- जानकी पुल. ———————————————————————————————————पिछले सवा दो वर्षों में हिंदी के मसलों पर रिर्पोटिंग का पहला त्रासद अनुभव यह रहा कि…
गौरव-ज्ञानपीठ प्रकरण में निर्णायक मंडल का मत एक महत्वपूर्ण पहलू है. क्या हिंदी के गणमान्य महज अपमानित होने के लिए निर्णायक बनते हैं या इसके पीछे कुछ और पहलू होते हैं. युवा लेखक विवेक मिश्र का यह लेख इस पूरे प्रकरण को एक अलग \’एंगल\’ से देखने का आग्रह करता है- जानकी पुल. ———————————————————————————–जानकीपुल ने पिछले दिनों लेखकों की अस्मिता और साहित्यिक संस्थाओं की मनमानी को लेकर कई बेहद जरूरी सवाल उठाए हैं। कोई भी लिखने-पढ़ने वाला व्यक्ति न तो इन सवालों को नज़रअंदाज़ कर सकता है और न ही सब कुछ सुन-समझ कर ख़ामोश ही रह सकता है। अधिकाधिक लोगों…
हाल के कार्टून विवाद के बहाने युवा इतिहासकार सदन झा का यह लेख. सदन ने आजादी से पहले के दौर के दृश्य प्रतीकों पर काम किया है, विशेषकर चरखा के प्रतीक पर किए गए उनके काम की बेहद सराहना भी हुई है. इस पूरे विवाद को देखने का एक अलग \’एंगल\’ सुझाता उनका यह लेख- जानकी पुल. ————————————————————————————– किसी भी अन्य राजनैतिक इकाई की तरह दलितों का यह हक़ बनता है कि वे उस बात का विरोध करें जिससे उनकी सामूहिक मानसिकता पर चोट पहुंची हो. यहाँ यह भी जोड़ देना लाजिमी हो जाता है कि दलित को या अल्प-संख्यक को…
यही वह कहानी है जिसके कारण भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रसिद्ध युवा लेखक गौरव सोलंकी के कहानी संग्रह को प्रकाशित करने में टालमटोल किया, बरसों बाद राजकमल प्रकाशन ने जिसको प्रकाशित करने का साहस दिखाया. क्या यह एक अश्लील कहानी है? पढकर देखिये- क्या सचमुच यह एक अश्लील कहानी है- जानकी पुल. ————————————————————————— हम वही देखते हैं, जो हम देखना चाहते हैं. मैं भी सनकी था। जैसे सपना भी यह दिखता था कि दो दोस्तों के साथ सिनेमाहॉल में फिल्म देखने गया हूं और जब वे दोनों कतार में मुझसे आगे लगे हुए मेरा टिकट भी लेकर अन्दर घुस गए हैं…
आज मैंने तहलका.कॉम पर युवा लेखक गौरव सोलंकी का ‘पत्र’ पढ़ा. पढकर दिन भर सोचता रहा कि आखिर हिंदी के एक बड़े प्रकाशक ने, जिसने पिछले ७-८ सालों से हिंदी की युवा प्रतिभाओं को सामने लाने का प्रशंसनीय अभियान चला रखा है, युवा लेखकों की पहली पुस्तकों को न केवल प्रकाशित करता है बल्कि उनको ‘नवलेखन’ पुरस्कार भी देता है, क्यों एक युवा लेखक की प्रतिभा को सुनियोजित रूप से ‘क्रश’ करने का सुनियोजित षड्यंत्र किया? यह एक छोटी-सी घटना लग सकती है जो संयोग से हिंदी समाज के एक बड़े ‘संकट’ की ओर इशारा करती है. आज भी हिंदी…
आज रवीन्द्र जयंती है. उनके जीवन-लेखन से जुड़े अनेक पहलुओं की चर्चा होती है, उनपर शोध होते रहे हैं. एक अछूते पहलू को लेकर डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र ने यह लेख लिखा है. बिहार के मिथिला प्रान्त से उनके कैसे रिश्ते थे? एक रोचक और शोधपूर्ण लेख- जानकी पुल. ——————————————————————————————— विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर सामान्यतः महात्मा गांधी के प्रति अत्यंत समादर भाव रखते थे, मगर जब १९३४ में मिथिलांचल में ऐतिहासिक भूकम्प आया और गांधी ने अपने पत्र ‘हरिजन’ में इसके लिए मिथिला के छुआछूत यानी सामाजिक आचार- व्यवहार को दोषी करार दिया, तब रवीन्द्रनाथ ने गांधी के इस अनर्गल प्रलाप…
अभी हाल में ‘लमही’ पत्रिका का कहानी विशेषांक आया है. उसमें कई कहानियां अच्छी हैं, लेकिन \’लोकल\’ में \’ग्लोबल\’ की छौंक लगाने वाले पंकज मित्र की इस कहानी की बात ही कुछ अलग है. स्थानीय बोली-ठोली में बदलते समाज का वृत्तान्त रचने वाले इस कहानीकार का स्वर हिंदी में सबसे जुदा है. जैसे ‘सहजन का पेड़’- जानकी पुल. ——————————————————– वो जो बिना पत्तोंवाला बड़ा पेड़ है जिसमें हरे-हरे सुगवा साँप लटक रहे हैं वह दरअसल साँप नहीं सहजन है और यही सहजन का पेड़ सिर्फ बचा है पांड़े परिवार की बाड़ी में जो है ठीक पांड़े परिवार के घर के पिछवाड़े।…