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शहीद रामप्रसाद बिस्मिल के जीवन के कुछ प्रसंगों को आधार बनाकर युवा लेखिका विपिन चौधरी ने एक नाटक लिखा है \’सरफरोशी की तमन्ना\’. आपके लिए- जानकी पुल.——————————————————————————–सरफरोशी की तमन्ना ( क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल पर आधारित लघु नाटक ) पात्र परिचय1 रामप्रसाद बिस्मिल 2 बिस्मिल की माताज़ी, मूली देवी 3 बिस्मिल के पिताज़ी, मुरलीधर 4 अशफाकउल्ला खाँ.( राम प्रसाद बिस्मिल के पिताजी और माताजी आपस मे बातें करते हुये)पिताजी- आज का अखबार नहीं मिल रहा. कहीं देखा तुमने ?मूर्ती देवी- सुबह सामने मेज़ के नीचे रखा था मैने, वहीं पर होगा.पिताजी- हाँ, मिल गया वही पर है.( अखबार को देख कर…

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आज एम.एफ. हुसैन की बरसी है. यह लेख मैंने पिछले साल उनके निधन के बाद लिखा था. भारतीय चित्रकला के मिथक पुरुष को याद करते हुए एक बार फिर वही- जानकी पुल.———————————————————————————————एम. एफ. हुसैन की मृत्य की खबर जबसे सुनी तो यही सोचता रहा कि आखिर क्या थे हुसैन! कई अर्थों में वे बहुत बड़े प्रतीक थे. राजनीतिक अर्थों में वे साम्प्रदायिकता-विरोध के जितने बड़े प्रतीक थे, बाद में भगवाधारियों ने उनको उतने ही बड़े सांप्रदायिक प्रतीक में बदल दिया. उनका कहना था कि हुसैन ने एक मुसलमान होते हुए हिन्दू देवियों को नग्न चित्रित किया, भारत माता को नंगा…

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अभी इतवार को प्रियदर्शन का लेख आया था, जिसमें गौरव-ज्ञानपीठ प्रकरण को अधिक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने का आग्रह किया गया था. वरिष्ठ लेखक बटरोही ने उसकी प्रतिक्रिया में कुछ सवाल उठाये हैं. सवाल गौरव सोलंकी या ज्ञानपीठ का ही नहीं है उस मनोवृत्ति का है जिसका शिकार हिंदी का बेचारा लेखक होता है- जानकी पुल.——————————————————————————————————————————–प्रियदर्शन के लेख को पढ़कर मैं हतप्रभ हूँ। क्या यह मामला गौरव सोलंकी, रवींद्र कालिया, और आलोक जैन के बीच फौजदारी मुकदमे का है? कि प्रियदर्शन ने फैसला सुना दिया इसलिए सबको मानना ही पड़ेगा। हिंदी के गौरव के सवाल क्या उसकी गिनी-चुनी पत्रिकाओं और…

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\’कथा\’ पत्रिका का नाम आते ही मार्कंडेय जी याद आते हैं. यह खुशी की बात है कि उनकी मृत्यु के बाद उस पत्रिका का प्रकाशन फिर शुरु हुआ है. संपादन कर रहे हैं युवा कथाकार अनुज. इसका नया अंक मीरांबाई पर एकाग्र है. प्रस्तुत है इस सुन्दर संयोजित अंक का सम्पादकीय- जानकी पुल. ——————————————————————————————- यह महजएकसंयोगहैकिआज18 मार्चहैऔरमैंमार्कण्डेयकी‘कथा’ औरअपनेजीवनकायहपहलासंपादकीयलिखनेबैठाहूँ।आजहीकेदिनवर्ष2010 कोमार्कण्डेयहमसबकोछोड़इसदुनियासेचलेगएथे। हमसबइसतथ्यसेअवगतहैंकिजबएकसाहित्यकारइसदुनियासेजाताहैतो, वहतोचलाजाताहैलेकिनअपनेपीछेछोड़जाताहैजानेकितनेसुलझे-अनसुलझेअपनेविचार, अपनेआदर्शऔरअपनेढेरसारेअधूरेसपने।मार्कण्डेयभीइसीतरहअपनेपीछेछोड़गएहैं, अपनेआदर्श, कई-कईअधूरेसपनेऔरछोड़गएहैं‘कथा’ कीयहजिम्मेवारी। जब मार्कण्डेयजीकीबड़ीबेटीडॉ. स्वस्तिसिंहनेमुझेइलाहाबादआनेकाआदेशदियाऔरमुझसे‘कथा’ कोआगेप्रकाशितकरतेरहनेकीअपनीयोजनाबतातेहुएइसकेसंपादनकीमहतीजिम्मेवारीमुझेसौंपनेकीबातकी, तोएकबारगीमैंजैसेसिहर-सागया।मैंजानताथाकिमार्कण्डेयकेजूतेमेंपाँवडालनाआसाननहोगा।लेकिनस्वस्तिजीकेआदेशकोटालनाऔरउन्हेंयहसमझालेनाकि‘कथा’ जैसीपत्रिकाकासंपादनमेरीहैसियतसेबाहरकीचीजहै, ऊँटकोनावपरबैठानेसेकमनथा। आखिरकारमुझेहामीभरनीपड़ीथी।हालांकिमैंनेमार्कण्डेयकेजूतेमेंपाँवतोडालदियाथा, लेकिनजूतेथेकिसम्भालेनहींसम्भल रहे थे। जैसेएकछोटाबच्चाअपनेपिताकेजूतोंकोपहनकरउसेघसीटताहुआपूरेघरमेंघूमतारहताहै, शुरूआतसेआखिरतकमेरीभीहालतकुछवैसीहीरहीथी।अबजूतेथोड़े-बहुतढीलेहोतेतोएक-दोसुखतलेडाललेता, लेकिनयहाँतोपाँवक्या, मेरापूरा-का-पूरा

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संजीव कुमार हमारे दौर बेहतरीन गद्यकार हैं. उनका यह वृत्तान्त एक सिनेमा हॉल के बहाने पटना के आधुनिक-उत्तर-आधुनिक होने की कथा है. केवल पटना ही क्यों हमारे कस्बाई शहरों के रूपांतरण की कथा है. अद्भुत किस्सागोई, स्मृति-बिम्बों के सहारे अतीत का एक ऐसा लोक रचते हैं संजीव कुमार जिसमें अतीत का मोह नहीं है, उसके तथाकथित विकास की विडंबना है और परिवर्तन का सहज स्वीकार. दस सालों बाद इसे उत्तर-कथा के साथ दोबारा पढ़ा तो और प्रासंगिक लगा. आप भी देखिये- जानकी पुल. ————————————–   मानस चलन्तिका टीका के मटमैले पर्दे पर दास्तान-ए-वैशाली  Memory is the only one of our…

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ज्ञान मुखर्जी की फिल्म \’किस्मत\’ १९४० में रिलीज हुई थी. इसे हिंदी का पहला \’ब्लॉकबस्टर मूवी\’ कहा जाता है. उस फिल्म को याद कर रहे हैं सैयद एस. तौहीद- जानकी पुल. —————————————————————————-ज्ञान मुखर्जी की ‘किस्मत’खुशी और गम के पाटों में उलझे शेखर (अशोक कुमार) एवं रानी (मुमताज़ शांति) की बनती-बिगडती तकदीरों की दास्तां है। कथा एक तरह से शेखर और रानी की कहानियों का सुंदर संगम है। किस्मत को हिन्दी की पहली बडी ‘ब्लाकबस्टर’फ़िल्म होने का गौरव प्राप्त है। सन1943 में रिलीज़ होकर ,दो वर्ष से भी अधिक समय तक रजत पटल की शोभा बनी रही। अभिनेता अशोक कुमार निगेटिव नायक…

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१९१२ में बनी फिल्म \’पुंडलीक\’ क्या भारत की पहली फीचर फिल्म थी? दिलनवाज का यह दिलचस्प लेख उसी फिल्म को लेकर है- जानकी पुल.———————————————– इस महीने में भारत की पहली फीचर फिल्म ‘पुंडलीक’ निर्माण का शतक पूरा कर रही है. अमीर हो या गरीब… बंबई ने इस ऐतिहासिक घटना का दिल से स्वागत किया। उस शाम ‘ओलंपिया थियेटर’ में मौजूद हर वह शख्स जानता था कि कुछ बेहद रोचक होने वाला है। हुआ भी… दादा साहेब द्वारा एक फिल्म की स्क्रीनिंग की गई…पहली संपूर्ण भारतीय फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ के प्रदर्शन ने हज़ारों भारतीय लोगों के ख्वाब को पूरा किया। तात्पर्य यह कि भारतीय सिनेमा सौवें साल में दाखिल हो गया…जोकि एक उत्सव का विषय है।धुंधीराज गोविंद फालके (दादा साहेब फालके) हांलाकि इस मामले में पहले भारतीय नहीं थे। उनकी फिल्म से एक वर्ष पूर्व रिलीज़ ‘पुंडलीक’ बहुत मामलों में पहली भारतीय फिल्म कही जा सकती है, लेकिन कुछ विदेशी तकनीशयन होने की वजह से इतिहासकार इसे पहली संपूर्ण भारतीय फिल्म नहीं मानते। फालके ने अपनी&nbs p;फिल्म को स्वदेश में ही पूरा किया जबकि तोरणे ने ‘पुंडलीक’ को प्रोसेसिंग के लिए विदेश भेजा,फिर फिल्म रील मामले में भी फालके की ‘राजा हरिश्चंद्र’ तोरणे की फिल्म से अधिक बडी थी।पुंडलीक के विषय में फिरोज रंगूनवाला लिखते हैं… ‘दादा साहेब तोरणे की ‘पुंडलीक’ 18 मई,1912 को बंबई के कोरोनेशन थियेटर में रिलीज़ हुई। महाराष्ट्र के जाने-माने संत की कथा पर आधारित यह फिल्म, भारत की प्रथम कथा फिल्म बन गई। पहले हफ्ते में ही इसके रिलीज़ को लेकर जन प्रतिक्रिया अपने आप में बेमिसाल घटना थी, जो बेहतरीन विदेशी फिल्म के मामले में भी शायद ही हुई हो। वह आगे कहते हैं ‘पुंडलीक को भारत की पहली रूपक फिल्म माना जाना चाहिए, जो कि फाल्के की ‘राजा हरिश्चंद्र’ से एक वर्ष पूर्व बनी फिल्म थी’बहुत से पैमाने पर पुंडलीक को ‘फीचर फिल्म’ कहा जा सकता है :1)कथा पर आधारित अथवा प्रेरित प्रयास 2) अभिनय पक्ष 3) पात्रों की संकल्पना 4)कलाकारों की उपस्थिति 5) कलाकारों के एक्शन को कैमरे पर रिकार्ड किया गया।टाइम्स आफ इंडिया में प्रकाशित समीक्षा में लिखा गया ‘पुंडलीक में हिन्दू दर्शकों को आकर्षित करने की क्षमता है। यह एक महान धार्मिक कथा है, इसके समान और कोई धार्मिक नाटक नहीं है। पुणे के ‘दादा साहेब तोरणे’(रामचंद्र गोपाल तोरणे)में धुंधीराज गोविंद फालके(दादा साहेब फालके) जैसी सिनेमाई दीवानगी थी। उनकी फिल्म ‘पुंडलीक’ फालके की फिल्म से पूर्व रिलीज़ हुई, फिर भी तकनीकी वजह से ‘राजा हरिश्चंद्र’ की पहचान पहली संपूर्ण भारतीय फिल्म रूप है। तोरणे की फिल्म को ‘भारत की पहली’ फ़ीचर फिल्म होने का गौरव नहीं मिला| पुंडलीक के रिलीज़ वक्त तोरणे ने एक विज्ञापन भी जारी किया, जिसमें इसे एक भारतीय की ओर से पहला प्रयास कहा गया। बंबई की लगभग आधी हिन्दू आबादी ने विज्ञापन को देखा। लेकिन यह उन्हें देर से मालूम हुआ कि ‘कोरोनेशन’ में एक शानदार फिल्म रिलीज हुई है। पुंडलीक को तकरीबन दो हफ्ते के प्रदर्शन बाद ‘वित्तीय घाटे’ कारण हटा लिया गया।तोरणे को फिल्मों में आने से पहले एक तकनीकशयन का काम किया। एक ‘बिजली कंपनी’ में पहला काम मिला। पर यह उनकी तकदीर नहीं थी। कंपनी में रहते हुए ‘श्रीपद थियेटर मंडली’ के संपर्क में आए । वह कंपनी के नाट्य-मंडली एवं नाटकों से बेहद प्रभावित हुए, फिर तत्कालीन सिने हलचल ने कला के प्रति उनके रूझान को आगे बढाया। बिजली कंपनी में कुछ वर्षों तक काम करने बाद मित्र ‘एन चित्रे’ के वित्तीय सहयोग से कलाक्षेत्र में किस्मत आजमाने का बडा निर्णय लिया। मित्र के सहयोग से विदेश से एक फिल्म कैमरा मंगवा कर ‘पुंडलीक’ का निर्माण किया। पुंडलीक निर्माण एक संयुक्त उपक्रम था, जिसमें दादा साहेब तोरणे एवं एन चित्रे(कोरोनेशन सिनेमा के स्वामी) एवं प्रसिध फिल्म वितरक पीआर टीपनीस की कडी मेहनत थी । तोरणे ने फिल्म को रचनात्मक उतकृष्टता प्रदान की जबकि चित्रे एवं टीपनीस ने वित्तीय व वितरण की जिम्मेवारी निभाई। तोरणे ने शूटिंग लोकेशन रूप में बंबई के ‘मंगलवाडी परिसर’ को चुना, जहां श्रीपद मंडली के मराठी नाटक का सफल फिल्मांतरण किया।तोरणे द्वारा स्थापित ‘सरस्वती’ फिल्म प्रोडक्शन(सरस्वती सिनेटोन) के तहत अनेक उल्लेखनीय फिल्मों का निर्माण हुआ जिसमें : श्यामसुंदर, भक्त प्रहलाद, छ्त्रपति शम्भाजी, राजा गोपीचंद, देवयानी जैसी फिल्मों का नाम लिया जा सकता है। रामगोपाल तोरणे सिनेमा कला में दक्ष रहे, माना जाता है कि सरस्वती बैनर की ज्यादातर फिल्मों की कथा पटकथा,संपादन,निर्माण,निर्देशन जैसे महत्त्वपूर्ण पक्षों को तोरणे ही देखते थे। पुंडलीक के निर्माण समय मोबाइल कैमरा की तकनीक नहीं थी, इसके माध्यम से फिल्म को केवल एक कोण पर ही रिकार्ड करना संभव था। रिकार्डिंग से तोरणे संतुष्ट नहीं हुए, इसलिए पूरी फिल्म अलग- अलग हिस्सोंमें रिकार्ड कर जोडने का निर्णय लिया। आजकल यह काम ‘संपादक’ करता है… तोरणे सिनेमा से जुडे महत्त्वपूर्ण तकनीकी पहलूओं के दक्ष जानकार थे। दुख की बात है कि इस सब के बावजूद रामगोपाल तोरणे को बडे अर्से तक गुमनामी में जीना पडा। वित्तीय संकट की वजह से ‘सरस्वती सिनेटोन’ सन 1944

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