आज पढ़िए दक्षिण कोरिया के कवि को उन की कविताएँ। को उन कोरिया के प्रमुख कवि और राजनीतिक कार्यकर्ता रहे हैं। दक्षिण कोरिया में लोकतंत्र के आंदोलन में अपनी भूमिका के लिए उनको याद किया जाता है। उनकी कविताओं का अनुवाद पंद्रह से अधिक भाषाओं में हो चुका है। आप पढ़िए उनकी छह कविताएँ जिनका मूल कोरियन भाषा से अनुवाद किया है कुमारी रोहिणी ने- मॉडरेटर ======================= 1. उस लड़के का गीत वह समुंदर बिना पुरखों के इस तरह लहरों में क्यों टूट रहा है, रोज़-रोज़, हर रोज़ क्योंकि चाहता है आसमान हो जाना जो यूँ तो वह हो नहीं…
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आज मनप्रीत कौर मखीजा की सात कविताएँ। मनप्रीत गांधीनगर की रहने वाली हैं। कविताओं के साथ-साथ कहानियाँ भी लिखती हैं जिनका प्रकाशन विभिन्न कहानी संग्रहों में हो चुका है। उनकी इन कविताओं में व्यवस्था से आम नागरिकों के सवाल भी हैं, व्यंग्य भी हैं, पर्यावरण को लेकर चिंता भी है साथ ही उनमें स्त्री-निर्मिति की समझ भी है।अब यह कविताएँ आप सबके समक्ष प्रस्तुत है – अनुरंजनी ===================================== 1.सवाल कटते जा रहे हैं पेड़ घटते जा रहे हैं जंगल फैलते ही जा रहे हैं शहरमोबाइल टावर की तरंगों से डरकर बहुमंजिला इमारतों में भी एक छोटी…
आज प्रस्तुत है ‘मुंबई नाइट्स’ के लेखक संजीव पालीवाल से बातचीत। संजीव जी से बातचीत करने में बहुत आनंद इसलिए भी आता है क्योंकि वे क्राइम फ़िक्शन विधा के न केवल अच्छे लेखक हैं बल्कि इस विधा के साहित्य के बहुत जानकार भी हैं। वे गंभीर और लोकप्रिय साहित्य के विभाजन में विश्वास नहीं करते हैं। बहुत तैयारी से लिखते हैं और हिन्दी की लुप्त होती क्राइम फ़िक्शन विधा में उन्होंने जैसे फिर से जान फूंक दी है। उन्होंने बहुत से सवालों के जवाब दिये। और हाँ, इस बात का भी कि वेद प्रकाश शर्मा और सुरेंद्र मोहन पाठक में…
साहित्य का जीवन में समावेश सांस्कृतिक मूल्य है। इसमें गीत-कविता बहुधा आते हैं। यह पुस्तक अंश नौ साल पुरानी घटना है, जो कि एक विवाह का सच्चा निमंत्रण पत्र है। पाठकों के लिए ‘प्रचण्ड प्रवीर’ का विशेष – ******************* कल की बात है। जैसे ही हम मोहल्ला में कदम रखे तो मोहन प्यारे हमसे पूछने लगा कि सुने हैं कि तुम्हरे भइया का ‘सादी’ ठीक हो गया है। हम बोले कि एकदम ठीक सुने हो जी। मोहन पूछने लगा, तुम हमको इसका सच्चा हाल बताओ। उसी को बयान किये हुए किस्से को यहाँ लिख दिया गया है। भइया का ‘सादी’…
प्रसिद्ध विद्वान विद्यानिवास मिश्र ने 1998 में एक किताब लिखी थी- ‘सपने कहाँ गए’। यह किताब एक तरह से आज़ादी के पचास वर्षों का लेखा-जोखा है, उन सपनों का जिनको आज़ादी के दिनों में देखा गया था। किस तरह उसकी दिशा बदल गई, उससे भारतीय जन ग़ायब होता गया। प्रसिद्ध इतिहासकार हितेन्द्र पटेल का यह लेख विद्यानिवास मिश्र की किताब ‘सपने कहाँ गए’ के बहाने इतिहास के कुछ गंभीर सवालों की चर्चा करती है जो इस किताब की धुरी है। इसमें अकेले पड़ते हुए गांधी हैं, वह राजनीति है जो जन से दूर होती गई। सबसे बढ़कर भाषा का सवाल…
विवाह संस्था की नींव स्त्री-पुरुष पर टिकी रहती है, यह तो सामान्य सी बात है लेकिन प्रत्येक स्त्री-पुरुष की स्थिति एक-दूसरे से भिन्न ही होती है। कुछ बातें ऐसी भी हैं जहाँ प्रत्येक ‘जोड़ी’ समान भौतिक इच्छा रखती है, वह है अपने घर का होना। रोटी, कपड़ा, मकान तो किसी भी व्यक्ति की बुनियादी ज़रूरते हैं लेकिन इस विडंबना से हम सब वाक़िफ़ हैं कि इनकी आपूर्ति भी सबों तक नहीं हो पा रही है। उस पर से यह भी कि ज्यों-ज्यों बाज़ारवाद का विकास होते जा रहा है त्यों-त्यों हमारी माँगें भी बढ़ती जा रही हैं, उससे भी अधिक…
जानकी पुल की युवा संपादक अनुरंजनी ने संपादन के अपने अनुभवों को साझा किया है। पढ़िएगा कितनी ईमानदारी से लिखा है उसने- मॉडरेटर =============================== ‘संपादक’, यह एक बड़ी ज़िम्मेदारी का काम होता है। यों तो हमारा हर काम ही ज़िम्मेदारी वाला होता है, हमारा जीवन भी हमारी ही ज़िम्मेदारी है लेकिन बतौर संपादक एक खास वर्ग के प्रति ज़िम्मेदारी का एहसास अत्यधिक होता है। वह खास वर्ग है ख़ालिस पाठक का। अब उस पाठक वर्ग में चाहे कोई भी हो, अन्य लेखक/आलोचक भी जब उसे पढ़ रहे हैं तो वे पाठक की भूमिका में ही होते हैं। मेरा यह काम…
मेरे भीतर के पाठक को कथा से पहले वातावरण जानना होता है कि कथा के पात्र आखिर विचरते कहां हैं, क्योंकि वातावरण उन्हें बनाता है। ग्रामीण हैं तो जीवन धीमी गति और सहनशील धैर्य के साथ चलेगा और आप अपनी नब्ज़ सेट कर लेंगे। पात्र का परिवेश महानगर है तो एक बेचैनी पर आपकी नब्ज़ सेट होगी। इस वातावरण गढ़न के माहिर मेरे समकालीनों में कोई हैं तो वे पंकज सुबीर हैं। ‘चोपड़े की चुड़ैलें’ कथा ने मुझ पर इसी महीन विवरणात्मक परिवेश के कारण गहरा असर डाला था। उनकी कहानियां विविध परिवेशों की कहानियां हैं…. एकदम माजिद मजीदी की फिल्मों…
पेशे से कॉरपोरेट मजदूर, अनुपमा शर्मा एक अलग पहचान की तलाश में हैं। इस तलाश के सफर में अपने विचारों को कविता रूप में ढाल कर उनकी अभिव्यक्ति करने की चेष्टा करती हैं। दिल्ली निवासी अनुपमा का यह कहीं भी उनकी कविताओं के छपने का पहला अवसर है। लेखन के अतिरिक्त वे अध्यात्म में रुचि रखती हैं। तितलियाँ देखो एक खुले बाग़ में ओस पड़ी ठंडी घास पर हाथ फैलाए एक परछाई खड़ी है स्थिर जैसे किसी की प्रतीक्षा करती है देखो एक एक करके ढेरों रंग बिरंगी तितलियाँ उस खुले हाथ पर आ बैठी हैं उड़ती नहीं, बस उसके…
कल की बात है। जैसे ही मैँने महफिल मेँ कदम रखा, गौरव त्यागी मिल गए। गौरव त्यागी का बहुत गौरवशाली अतीत है। पिछली कम्पनी मेँ भी हमारे साथ थे, इस कम्पनी मेँ भी हमारे साथ हैँ। एक सहकर्मी के जन्मदिन की पार्टी मेँ दोपहर के खाने पर हम सब इकट्ठे हुए थे। गौरव त्यागी हमेँ देखते ही गले से लगे। साथ खड़ी महिला सहकर्मी से हमारा परिचय कराने लगे। हम उन देवी जी को जानते नहीँ थे और उनके सामने अपनी हो रही तारीफ से हम शर्मिन्दा हुए जा रहे थे। चुनाँचे हमने बात का रूख मोड़ दिया और पुरानी…